रविवार, 24 फ़रवरी 2013

प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका एवं मानवीय प्रबंधन का मनोविज्ञान

प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका एवं मानवीय प्रबंधन का मनोविज्ञान
 दिनेश  कुमार सक्सेना ,पुस्तकालयाध्यक्ष,पी0पी0एन0कालेज,कानपुर
         आज प्राकृतिक आपदायें विश्व में विकसित और विकासशील सभी देशों में किसी न किसी रूप में जीव-जन्तु से लेकर लाखों मनुष्यों के जीवन को अस्त व्यस्त कर रही हैं। भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, लम्बे समय तक सूखे की सिथति का रहना, बाढ़, हरीकेन, टारनैडो जैसे वायुमण्डलीय तूफान वहीं सुनामी, लैला जैसे समुद्री तूफान व्यापक तबाही का कारण बनते हैं। इस प्राकृतिक आपदाओं का सही-सही पूर्वानुमान तो सम्भव नही है और न ही उनकी रोकथाम, फिर भी विभिन्न आपदाओं से पूर्व सतर्कता, प्रशिक्षण एवं अन्य तैयारी करके इनके प्रकोप के स्तर को निम्न स्तर पर अवश्य लगाया जा सकता है।
       किसी लेखक की लेखकीय विशेषता तब और महान हो जाती है जब वह सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर अपनर सृजन करे और सम्बधिंत समस्या को उजागर कर अपने सृजन के माध्यम से उसका समाधान भी करे। इस दृषिट से डा0वीरेन्द्र यादव को सृजन का शायद ही कोर्इ विकल्प हो। यह प्रकाशिता छ: खण्डों में विभाजित एवं 25 विद्वानों के लेखों को  इस पुस्तक में स्थान दिया गया है।  प्राकृतिक आपदाएं : स्वरूप एवं प्रबन्धन की संम्भावनाएं,भारत में प्राकृतिक आपदाओं का स्वरूप एवं प्रबन्धन के विविध संदर्भ,विकास एवं और प्राकृतिक आपदाओं का प्रबन्धन,पर्यावरण एवं प्राकृतिक आपदाओं का प्रबन्धन :एक विश्लेषण,साहित्य में प्राकृतिक आपदाओं का स्वरूप एवं उनका प्रबन्धन, प्रमुख तथा गौण प्राकृतिक आपदाएँ एवं उनका प्रबंधन के द्वारा प्राकृतिक आपदाओं के विविध सरोकारों की चर्चा की गयी है। डा. आनन्द कुमार खरे एवं डा. वीरेन्द्र सिंह यादव के सम्पादन में निकली यह पुस्तक प्राकृतिक आपदाओं के विविध परिदृश्यों को निरूपित करती है।
       वर्तमान एवं ऐतिहासिक श्रोतों  के परिपे्रक्ष्य को उजागर करती इस पुस्तक तके अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।प्राकृतिक आपदायें आकसिमक रूप से आती हैं और मानव सभ्यता, सम्पतित, सामाजिक, आर्थिक ढ़ाँचे को तहस-नहस करके व्यापक विनाशकारी प्रभाव डालती हैं। यहीं कारण है कि आज के वैज्ञानिक युग में भी मनुष्य आपदाओं के सामने असहाय नजर आने लगता है। जैसे बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन, सूखा, तूफान, पर्वतीय क्षेत्रों में हिमस्खलन, बादलों का फटना आदि। प्राकृतिक आपदाओं का सामना प्रत्येक वर्ष करना पड़ता है। देश का लगभग 60 प्रतिशत भाग भूकम्प की आशंका वाला क्षेत्र है। जनवरी 2001में गुजरात का भूकम्प, दिसम्बर 2004 का सुनामी का प्रकोप, जुलार्इ 2005 की मुम्बर्इ की बाढ़ आदि आपदाओं के कहर को हम भूले नही हैं।
        पुस्तक का निष्कर्ष है कि प्रकृति और विकास का असंतुलन ही वह कारण है जो प्राकृतिक आपदाओं के लिए जिम्मेदार है। विकास और विध्वंश की बेसुरी जुगलबन्दी हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर रही है कि पहाड़ों के भूकम्पीय क्षेत्रों में हमें क्या बड़े-बड़े बाँध बनाने चाहिए। जल विधुत परियोजनाओं की सुरंगों को गाँवों के नीचे से गुजरने के कारण जहाँ भूस्खलन में वृद्धि हुर्इ है। प्रकृति से खिलवाड़ के कारण ही वर्तमान समय में मनुष्य वर्ष भर आपदाओं का सामना करता रहता है। हमारी अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि भी एक आपदा ही है। बढ़ती आबादी के सामने हमारी विकास यात्रा बौनी हो गयी है। आज रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं का अभाव है। शहरों में अनियोजित विकास का ढाँचा आपदाओं के सामने असहाय नजर आता है। इस पुस्तक में चेतावनी के रूप में सजग करने की कोशिश की गयी है कि आज विकास के नाम पर जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है। उससे अभूतपूर्व पर्यावरण असंतुलन पैदा हो गया है। प्रकृति का यह पर्यावरणीय असंतुलन ही प्राकृतिक आपदाओं के लिए जिम्मेदार है। प्रत्येक वर्ष हमारे जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए हमने जंगल काट डाले हैं। वहीं चार और छह लेन की आधुनिक सड़कों का निर्माण के लिए भी देश में लाखों छायादार वृक्षों को काटा गया है जिससे मौसम चक्र तो प्रभावित हुआ ही है। साथ ही जल स्तर भी बहुत नीचे पहुँच गया है। यही कारण है कि आज देश में गाँवों से लेकर नगरों तक में जल का अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया है। अधिक से अधिक टयूबवैल लगाकर पानी का दोहन किया जा रहा है। वही तालाब,कुएँ जैसे परम्परागत जल संग्रह के साधनों का असितत्व मिटाया जा रहा है।
       इस पुस्तक में  सम्पादकीय के माध्यम से अपना नजरिया प्रस्तुत करते डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने कहा है कि आपदायें चाहे प्राकृतिक हों या मानव जनित, प्रबन्धन की दृषिट से क्षणिक प्रयासों से इनका समाधान संभव नही है। आपदा प्रबन्धन की दूरगामी योजना, मजबूत चेतावनी तंत्र, केन्द्र एवं राज्य सरकारों के मध्य अच्छा सामंजस्य तथा प्रशिक्षण को उच्च स्तरीय सुविधाओं के केन्द्रों का विकास बहुत अनिवार्य है। साथ ही आम नागरिक एवं विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों और सामाजिक, आर्थिक संस्थाओं को भी आपदा प्रबन्धन की विशेषज्ञता से जोड़ना चाहिए ताकि वे आपदा के समय अपनी व्यापक भूमिका सुनिशिचत कर सकें। हमें प्राथमिक स्तर से ही नैतिक शिक्षा एवं अलग विषय के रूप में आपदा प्रबन्धन को प्राथमिकता देना चाहिए ताकि आपदा की विभीषिका के समय प्रत्येक व्यकित अंदर से यह अनुभव करें कि आपदा से प्रभावित लोगों की सहायता एवं रक्षा करना उसका भी दायित्व है। केवल सरकारी विभागों एवं योजनाओं के सहारे हम आपदाओं के व्यापक प्रकोप का सामना कदापि नहीं कर सकते हैं। कुशल मानवीय प्रबन्धन के द्वारा हम ऐसी परिसिथति का निर्माण करने में सफल हो सकेंगे। जिससे प्राकृतिक एवं मानव जनित आपदाओं से आम नागरिक स्वयं को निशिचत ही सुरक्षित अनुभव करेंगे। प्राकृतिक आपदाओं जैसी विभीषिका पर शोधपूर्ण पुस्तकों की कमी को प्रस्तुत पुस्तक में बेहतरीन शोध लेखों के माध्यम से पूरा करने का प्रयास किया है।
पुस्तक का नाम-प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका एवं मानवीय प्रबंधन का मनोविज्ञान
संपादक- डा. आनन्द कुमार खरे, डा.वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-16+269-285
ISSN.978.81.8455.334.5
संस्करण-प्रथम.2011
मूल्य-500.00
ओमेगा पबिलकेशन्स,43784ठएळ4एजे.एम.डी,हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002

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