शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

उत्तर आधुनिकता की पृष्ठभूमि : कुछ विचार, कुछ प्रश्न

उत्तर आधुनिकता की  पृष्ठभूमि : कुछ विचार, कुछ प्रश्न

कुमार वीरेन्द्र
सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
जी0 एल00 कालेज, (नीलाम्बर-पीताम्बर विश्वविधालय)
मेदिनीनगर, पलामू, झारखण्ड, पिन - 822102
उत्तर आधुनिकता की परिभाषा महान वृतान्तों में अविश्वास करना है। हमें सकलता के खिलाफ युद्ध छेड़ देना चाहिए, इसकी अपेक्षा हमारी सक्रियता विशिष्टता के प्रति होनी चाहिए। वास्तव में उत्तर आधुनिकता केवल अधिकृत व्यकितयों का औजार ही नही है, इसका लक्ष्य विशिष्टता के प्रति हमें संवेदनशील करना है और वे वस्तुएं जो हमें अनुपयुक्त लगती हैं, उन्हें उदारता के साथ स्वीकार करने की योग्यता पैदा करना है। इस अवधारणा का प्रारम्भ साहित्य, कला, फिल्म और समीक्षा के साथ हुआ है। इसका प्रारमिभक स्वरूप दार्शनिक है, किन्तु बाद में इस दर्शन ने सामाजिक सिद्धान्त के क्षेत्र को प्रभावित किया। विखण्डनवाद ने सर्वाधिक प्रहार विभिन्न क्षेत्र के पूर्व स्थापित एवं चिरपरिचित प्रारमिभक ग्रन्थों पर किया है। उत्तर आधुनिकतावाद एक सांस्कृतिक पैराडिम अर्थात माडल है। यह संस्कृति सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रक्रियाओं से जुड़ी हुर्इ है। इसकी अभिव्यकित जीवन की विभिन्न शैलियों में अर्थात कला, साहित्य, दर्शन आदि में देखने को मिलती है। उत्तर आधुनिकता की संस्कृति को सामाजिक आयोजन और आर्थिक परिवर्तन में देखा जा सकता है। इसकी उपसिथति प्रत्यक्षवाद, उत्तर संरचनावाद और विखण्डन में भी पायी जाती है। इन्हीं महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रस्तुत पुस्तक विस्तार से प्रभाव डालती है।
       पुस्तक के अनुसार उत्तर आधुनिकतावाद के तीन केन्द्रीय प्रस्ताव हैं - समग्रवादी सार्वभौमिक तथ्यों का नकार, तर्कवाद का नकार और आधुनिकतावाद की सक्षमता का नकार। इससे अब तक के समाजशास्त्र की अवधारणायें चुनौती पाती हैं और काम पाती हैं। पशिचमी दुनिया ने अपनी जवानी में एक सपना पाला। एक ऐसा केन्द्रीकृत विश्व जिसमें एक सार्वभौमिक सिद्धान्त में हर चीज डूब जाती है। लेकिन यह केन्द्रीकृत विश्व और कुछ नहीं पूँजीवादी विश्व ही है। उत्तर आधुनिकतावाद कहता है कि इस पूँजीवाद के महाकाय में हर चीज शामिल है। 'पोस्टमाडर्निज्म आफ द कल्चरल लाजिक आफ लेटकैपिटलिज्म में एक जगह जेमेसन कहते हैं कि उत्तर आधुनिकतावाद पूँजीवाद के इसी 'एपीथियोसिस से शुरू होती है, वह पूँजीवाद के उस सर्वव्यापकत्व में निहित है, जिसके तहत पूँजीवाद गैर-पण्यीय क्षेत्रों में भी जा पहुँचा है और हर चीज को पण्य बना डाला है।
 पुस्तक में सम्पादकीय के माध्यम से  डा. वीरेन्द्र का मानना है कि आधुनिकता का आधार मानववाद, तर्कनिष्ठा, बौद्धिकता तथा वैज्ञानिकता एवं सार्वभौमिकता है। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद भी आधुनिकता की ही देन हैं। उत्तर आधुनिकता ने आधुनिकता की सीमाओं को पहचाना है। यह कहीं उसे काटती है, कहीं साझेदार है और कहीं आगे भी जा रही है। इन्ही सरोकारों को दृषिटगत रखते हुए डा. वीरेन्द्र सिंह यादव ने प्रस्तुत पुस्तक को पाच उपशीर्षकों के अन्तर्गत-उत्तर आधुनिकता की  पृष्ठभूमि और अध्ययन की समस्याएं,साहितियक  परिपे्रक्ष्य में  उत्तर आधुनिकता  के  कुछ अक्स ,उत्तर आधुनिकता : कथ्य और शिल्प के नये आयाम,आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता : कुछ विचार, कुछ प्रश्न, उत्तर आधुनिकता  के परिवर्तित भाव बोध : मूल्यांकन और तकनीक के अहम  सवाल रखकर उत्तर आधुनिकता के विभिन्न पक्षों को  रखा है।
       इस पुस्तक में उत्तर आधुनिकता के मूल तत्व हैं-अस्वीकार, विखण्डन और अविवेक । अब तक मानव समाज ने जो कुछ सोचा-विचारा है, जिस मूल्य परम्परा को निर्मित किया है, जीने के लिए भौतिक और मानसिक आतिमिक  स्तर पर जो कुछ बनाया है, उस सबको अविवेकपूर्ण विखणिडत करके अस्वीकृत कर देना ही उत्तर आधुनिकता है। उत्तर आधुनिक विचारक हमें बताते है कि केवल शब्द होते हैं, उनसे अलग उनका कोर्इ अर्थ नहीं होता है। उत्तर आधुनिकता का एक पक्ष 'पर संसार की वकालत करना है। इसी कारण उत्तर आधुनिकता विकेन्द्रीकरण की पक्षधर है। वह हर प्रकार की सम्प्रभुता का विरोध करती है। इसीलिए वह लोकमत और जातिगत पहचानों को उभारती है। लेकिन हमारे देश में जो जातिगत सचेतता दिखार्इ देती है, वह उत्तर आधुनिकता की देन नही है। मजेदार बात यह है कि पशिचम में, जहाँ से उत्तर आधुनिकता का दर्शन आया है, प्रजाति का तो महत्व है, जाति का नही। वास्तव में उत्तर आधुनिकता की काया व्यावसायिक चेतना से निर्मित है और वह व्यावसायिक चेतना परम्परागत मूल्यों,प्रकृति और सौन्दर्य को जौहरी की तरह तराशकर बाजार में उसका मूल्य उगाहने में विश्वास करती है।
          कुल मिलाकर प्रस्तुत पुस्तक न केवल आधुनिकता के साथ परम्परा का मिश्रण तो करती है  इसके साथ ही उत्तर आधुनिकता के दर्शन, परम्परागत मूल्य और मानवेतर विश्वासों को जमीनी तहों से निकालकर उस पर वर्तमान की पालिश करके  एक नवीन व्याख्या भी करती है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि उत्तर आधुनिकता जैसी विधा पर उभरती तस्वीर फिल्म की तरह हमारे समक्ष कौंध रही है।
 पुस्तक का नाम-उत्तर आधुनिकता की पृष्ठभूमि :  कुछ विचार ,कुछ प्रश्न
संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-19+303-322
ISSN.978.81.8455.336.9
संस्करण-प्रथम.2011
मूल्य-795.00
ओमेगा पबिलकेशन्स,43784ठएळ4एजे.एम.डी.हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002

       





 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें