सोमवार, 11 अप्रैल 2011

राष्ट्रभाषा हिन्दी के विविध आयाम -- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव






राष्ट्रभाषा हिन्दी के विविध आयाम डॉ. धनंजय सिंह पुस्तक: राष्ट्रभाषा हिन्दी: विचार नीतियां और सुझाव लेखक: डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव प्रकाशक: नमन पब्लिकेशन्स, 4231/1 अंसारी रोड,दरियागंज ,नई दिल्ली.2 मूल्य: रू. 250.00 पृष्ठ : 12+128=140 ISBN - 978-81-8129-234-0

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भूमण्डलीकरण के इस दौर में जबकि हमारे सामने भाषा का संकट स्वरूप रूप से दिख रहा है, तब हिन्दी भाषा के उन्नयन की बात करना निश्चय ही प्रेरणास्पद है। हिन्दी साहित्य क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद’ की संकल्पना को स्थापित करने वाले युवा आलोचक डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव की समीक्ष्य कृति हिन्दी भाषा की विकास-यात्रा के विविध आयाम प्रस्तुत करती है। हिन्दी भाषा के प्रति अपनी लगन को स्पष्ट करते हुए डॉ. वीरेन्द्र ‘जमीनी कार्य करने की आवश्यकता’ पर बल देते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी: विचार नीतियां और सुझाव पुस्तक तेरह अध्यायों में विभाजित है और इसके प्रत्येक अध्याय का विषय इतना व्यापक एवं गम्भीर है कि उसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति कहीं कुछ धुंधलका शेष बचता ही नहीं है। लेखक ने हिन्दी के नये आँकड़ों से अवगत कराते हुये लिखा है कि अपने विशाल शब्द भण्डार, वैज्ञानिकता, शब्दों और भावों के आत्मसात की प्रवृत्ति के साथ हिन्दी ज्ञान विज्ञान की भाषा के रूप में उपयुक्तता एवं विलक्षणता के कारण आज हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में सर्वत्र मान्यता मिल रही है। लगभग 80 करोड़ आमजनों द्वारा विश्व के 176 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली हिन्दी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है। नव्यतम आँकड़े यह कहते हैं कि विश्व में हिन्दी बोलने वाले अब पहले स्थान पर हो गये हैं।’’ वास्तविकता यह भी है कि वर्तमान में हिन्दी भारत सहित विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक बोली, पढ़ी-लिखी तथा समझी जाती है। यही कारण है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी, चीनी एवं अंग्रेजी को पीछे छोड़ते हुए विश्व की प्रथम भाषा हो गयी है जो सर्वाध्किा आम जनता (अस्सी करोड़ से अधिक) द्वारा स्वेच्छा से बोले जाने वाली भाषा है। लेखक की मान्यता है कि आज हिन्दी भाषा साहित्य लेखन, वाचन तथा गायन आदि के रिवाज से हटकर अब दैनंदिन जीवन से लेकर विज्ञान प्रौद्योगिकी व्यापार-प्रबंधन आदि प्रत्येक क्षेत्र में यह अपनी उपस्थिति दर्शा चुकी है क्योंकि भाषा के इस नव्यतम रूप का युगानुकूल परिवर्तन एवं नवसृजन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है। इसका प्रमुख कारण विश्व स्तर पर बढ़ रहे आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक अन्तः सम्बन्धों के कारण वैचारिक स्तर पर एक वैश्विक चेतना का प्रादुर्भाव हो रहा है जिससे समूचे विश्व में हिन्दी भाषा को एक नयी दृष्टि मिल रही है और अन्तर्राष्ट्रीय विचारधाराओं का परिप्रेक्ष्य वर्तमान हिन्दी साहित्य में पूर्णता परिलक्षित हो रहा है। हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति और उसके अर्थ से प्रारम्भ हुई यात्रा राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याओं और समाधान पर आकर समाप्त होती है। प्रशंसनीय यह है कि डॉ. वीरेन्द्र ने समाज के उन तमाम सारे क्षेत्रों को अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा है तथा उनमें हिन्दी के स्वरूप को परिलक्षित करने का प्रयास किया है जो वर्तमान में किसी न किसी रूप में हिन्दी-भाषा विकास की बात करते दिखते हैं। इन क्षेत्रों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, बैंक, इण्टरनेट, स्वैच्छिक संगठन, संचार माध्यम आदि प्रमुख हैं। इन क्षेत्रो को आधार बनाकर लिखे गये लेखों में हिन्दी की वास्तविक स्थिति को दर्शाया गया है। डॉ. वीरेन्द्र ने हिन्दी भाषा के वर्तमान स्वरूप एवं उसकी स्थिति को दर्शाने के साथ-साथ उसकी संवैधानिक स्थिति को भी प्रस्तुत किया है। इन लेखों के माध्यम से हिन्दी के प्रति संवैधानिक सोच तथा समय-समय पर गठित होते आयोगों का दृष्टिकोण आसानी से समझा जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक का विवेचन करने पर यह ज्ञात होता है कि हिन्दी अपने विशेष साहित्यिक भण्डार की वजह से लोगों के जादुई आकर्षण का केन्द्र रही है और वैश्वीकरण के इस दौर में हिन्दी को नये परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। यहाँ चाहे सूचना प्रौद्योगिकी की बात हो या उत्पाद बेचने की या वोट माँगने की, विज्ञापनों के माध्यम से वस्तु के आत्म प्रचार की या फिल्मों को लोकप्रिय बनाने की या फिर वैज्ञानिक अनुसंधान की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने की, इन सबके लिये हिन्दी अब सर्वमान्य भाषा बन गयी है क्योंकि परिवर्तन के अनुरूप, परिवेश के अनुसार स्वयं को ढालकर अभिव्यक्ति को बहुआयामी रूप प्रदान करने में हिन्दी सदैव सक्षम रही है। तेरह अध्यायों के इस संग्रह के द्वारा डॉ. वीरेन्द्र ने हिन्दी भाषा का वर्तमान स्वरूप, सत्य हमारे सामने उद्घाटित किया है। निःसंदेह यह पुस्तक ज्ञानवर्धक एवं संग्रहणीय है।




























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