बुधवार, 20 अप्रैल 2011

दलित विमर्श के विविध आयाम-- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

बहुजन एवं हाशिए पर कर दिए लोगों का खण्ड
दलित विमर्श के विविध आयाम
डॉ. भारतेन्दु श्रीवास्तव
पुस्तक : दलित विमर्श के विविध आयाम
लेखक : डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक: निर्मल पब्लिकेशन्स, ।.139 गली नं 3, कबीर नगर शाहदरा, दिल्ली.54
मूल्य: रू. 250.00
पृष्ठ : 14+175=189
ISBN 81.86400.001.X

सामाजिक परिवर्तनों की छाप साहित्य में स्पष्ट रूप से सदा दृष्टिगोचर होती रही है या साहित्य में चर्चा के बाद उस विषय में परिवर्तन होते रहे हैं, यह विवाद का विषय हो सकता है। लेकिन वर्तमान में दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श इन्हीं दो धु्रवों के मध्य अपनी उपस्थिति को सिद्ध कर रहे हैं। साहित्य में इन दो विमर्शों की चर्चा आज पूरी तीव्रता से हो रही है। इसी विमर्श को डॉ. वीरेन्द्र ने बड़े ही तार्किक ढंग से ऐतिहासिक और वर्तमान के साथ सामंजस्य बनाकर प्रकट किया है।
दलित शब्द की उत्पत्ति से प्रारम्भ डॉ. वीरेन्द्र का दलित अवधारणाओं एवं समकालीन साहित्य को अपने में समाहित कर अतीत से आकर वर्तमान में कुछ यक्ष प्रश्नों के साथ आ ठहरता है। डॉ. वीरेन्द्र यादव की इस कृति को मूलतः चार भागों में विभक्त करके देखा जा सकता है। पहले भाग में वे दलित शब्द की पड़ताल करते हैं वहीं शेष तीन भागों में वे दलित आन्दोलन के सूत्रधारों का अलग-अलग विश्लेषण एवं चित्रण करते हैं। छत्रपति शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले, पेरियार, स्वामी अछूतानन्द को दलित आन्दोलन का महान प्रणेता बताकर उनके कुछ अनछुए पहलुओं को पुस्तक सामने रखती है।
दलित आन्दोलन के आधार-स्तम्भ के रूप में लेखक डॉ। भीमराव अम्बेडकर की चारित्रिक विशेषताओं, उनके संघर्षों तथा उनकी समाज के प्रति सकारात्मक सोच को स्थापित करते हैं वहीं डॉ. अम्बेडकर की सोच एवं संघर्ष के सापेक्ष महात्मा गाँधी के दलितोत्थान का भी सूक्ष्मता से पड़ताल करते हैं। यह विवादों को जन्म देता प्रतीत होता है किन्तु विविध् तथ्यपरक संदर्भ इन विवादों पर लगाम लगाते दिखते हैं।
बाबू जगजीवन राम, मान्यवर कांशीराम और आयरन लेडी मायावती के संघर्षों, राजनैतिक, सामाजिक विकास के द्वारा लेखक दलित आन्दोलन की नयी दिशा को समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं। इन दलित पुरोधाओं के व्यक्ति जीवन एवं दलित समाज के लिए किये गये इनके कार्यों से एक प्रकार का जो संघर्ष प्रारम्भ हुआ, जिसे आजाद भारत में पुनः एक दूसरी आजादी का संघर्ष कहा जा सकता है। लेखक का मानना है कि यह एक ऐसा संघर्ष है जो अपने देश में दलित जनों के द्वारा किया जा रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में दलित विमर्श भले ही अपने अवधारणात्मक विकास की प्रक्रिया में हो किन्तु यह तो स्पष्ट है कि अपनी अस्मिता के लिए दलित आन्दोलन के प्रणेताओं ने जो रास्ता बनाया है निश्चित ही वह रास्ता सकारात्मक मंजिल की ओर जाता दिखता है।
इन्हीं सबके बीच डॉ। वीरेन्द्र दलितों के विकास, उनके व्यापार, उनकी शिक्षा, उनके आर्थिक स्तर, उन्हें मिलती सुविधाओं, उनकी कानूनी-संवैधानिक स्थिति आदि को लेकर शिद्दत के साथ प्रश्न भी खड़े करते हैं। कागजों पर चल रही तमाम सारी सुविधाओं के परिप्रेक्ष्य में लेखक के ये प्रश्न यक्ष प्रश्न लगते हैं। इन प्रश्नों का समाधन होगा या नहीं, पता नहीं पर डॉ. वीरेन्द्र की समीक्ष्य कृति दलित आन्दोलन को एक नयी दिशा, नया दृष्टिकोण अवश्य ही प्रदान करने में सफल हो सुधि-पाठकों, शोधार्थियों एवं प्राध्यापकों की दृष्टि में प्रस्तुत पुस्तक अपना स्थान अवश्य बनाएगी।

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