बुधवार, 20 अप्रैल 2011

इक्कीसवीं सदी का महिला सशक्तिकरण: मिथक एवं यथार्थ--डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

इक्कीसवीं सदी का महिला सशक्तिकरण: मिथक एवं यथार्थ
डॉ.अलका द्विवेदी
पुस्तक - इक्कीसवीं सदी का महिला सशक्तिकरण: मिथक एवं यथार्थ
लेखक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - ओमेगा पब्लिकेशन्स 4373/4 बी., जी. 4, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य - 700.00
पेज - 16 + 306 = 322
ISBN - 979-81-8455-205-8

किसी भी कृति को पढ़ने के मूल में कई प्रकार की जिज्ञासाएं होती हैं आवश्यक नहीं कि हर पाठक की जिज्ञासाएं एक ही प्रकार की हों। हमारा ध्यान यहाँ उस अंश में जाता है जिसमें उस पहलू के प्रस्थान बिन्दु की चर्चा की गई हो जिसमें अभी तक किसी का ध्यान न गया हो। इस दृष्टि से डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव द्वारा सम्पादित पुस्तक इक्कीसवीं सदी का महिला सशक्तिकरण: मिथक एवं यथार्थ की चर्चा की जाए तो वह टिप्पणी सटीक नजर आती है। प्रस्तुत पुस्तक में स्त्री विमर्श बनाम मातृसत्ता तथा पितृसत्ता बनाम मातृसत्ता की चर्चा कर नारी मुक्ति आन्दोलन को एक नया विमर्श दिया गया है। वैसे देखा जाये तो महिला सशक्तिकरण की अवधारणा लगभग सभी समाजों में प्रारम्भ से रही है लेकिन एक विचारधारा के रूप में देखा जाना तथा जनसाधारण में इसका जनान्दोलन के रूप में विस्तार नया है। स्वाभाविक है कि वर्तमान में महिला सशक्तिकरण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वाधिक महत्व का विषय एवं प्रश्न बन गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में देश के अट्ठावन विद्वानों के शोधपरक लेखों को रखा गया है जिसमें महिला सशक्तिकरण एवं समाज में इसके प्रति मिथक एवं यथार्थ के विविध पहलुओं पर गम्भीरता से प्रकाश डाला गया है। प्राचीन काल से विशेषकर वेदों से लेकर वर्तमान में संसद भवन की सीढ़ियों के साथ ही विज्ञान, कला, संस्कृति, दर्शन की दुनिया से लेकर आकाश-पाताल को एक करती आधी दुनिया की अनुगूंज तो इसमें मिलती ही है साथ ही भूमण्डलीकरण एवं उदारीकरण के इस युग में जहाँ नारी ने स्वतंत्रता रूपी अनेक हक प्राप्त कर लिए हैं फिर भी एक दीवार पितृसत्तात्मक समाज उसके ऊपर डाले रहता है जिसके परिणामस्वरूप यह अनेक समाजों में आज भी हिंसा एवं अन्य अत्याचारों को सहती है। इसका कारण पारम्परिक मूल्यों में गिरावट समाज में बढ़ रही है अपराधिक प्रवृत्तियाँ, कानूनी प्रावधानों का कमजोर क्रियान्वयन, दृश्य एवं श्रव्य इलेक्ट्रानिक माध्यमों में हिंसा के अतिरंजित चित्रण इत्यादि ने महिला उत्पीड़न में अपना योगदान दिया है। पुस्तक के कुछ विद्वानों लेखकों का मानना है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार द्वारा महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अनेक योजनाएं बनाई गयी एवं शिक्षा से सम्बन्धित अनेक सुविधाओं तथा कानूनी प्रावधान बनने के बावजूद यह भी सच है कि सामाजिक स्तर पर राजनीतिक जागरूकता, प्रतिभागिता एवं आर्थिक स्वावलम्बन के क्षेत्र में जिस अनुपात में उन्हें अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाहिए थी उतनी वर्तमान में सम्भव नहीं हो पायी है। प्रस्तुत पुस्तक महिलाओं के उत्थान एवं पतन के श्याम एवं श्वेत पक्षों का ईमानदारी से विवेचन एवं विश्लेषण करती नजर आती है।





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