बुधवार, 20 अप्रैल 2011

समकालीन परिवेश: मुद्दे, विकल्प और सुझाव --डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

समकालीन ज्वलंत समस्याओं का अमर दस्तावेज -
डॉ0 ज्योति सिन्हा
पुस्तक - समकालीन परिवेश: मुद्दे, विकल्प और सुझाव
लेखक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक- नमन पब्लिकेशन्स, 4231/1अंसारी रोड , दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य रु. 450.00
पृष्ठ : 14+213=227
ISBN: 81.8129.235.9

वास्तव में देखा जाए तो किसी भी रचनाकार की रचनाएं, प्रकृति और जीवन से उसके सम्न्ध और संवाद का जीवंत साक्ष्य होती हैं। उस रचनाकार के व्यक्तित्व से जुड़ने का सबसे महत्वपूर्ण और पहला माध्यम भी ये रचनाएं ही होती हैं। इन्हीं के द्वारा हम उन तमाम भावों, अनुभूतियों, संवेदनाओं, विचारों, द्वन्द्वों, पूर्वाग्रहों, प्रतिबद्धताओं और आस्थाओं से रूबरू होते हैं, जो लेखकीय अभिव्यक्ति को एक विशेष दर्जा प्रदान करने के साथ उसे औरों से अलग करती हैं। किसी रचनाकार के व्यक्तित्व की यही विशेष तर्ज सृजन क्षेत्र में उसके मूल्यांकन का आधार बनती है। साहित्य एयं सामाजिक समस्याओं पर लेखनी चलाने वाले डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव उन रचनाकारों में से एक ऐसे ही रचनाकार हैं जो अपनी विशिष्ट पहचान के कारण जाने जाते हैं।
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव की नवीन पुस्तक समकालीन परिवेश: मुद्दे, विकल्प और सुझाव ,वर्तमान विश्व की ज्वलंत समस्याओं का मौलिक दस्तावेज है। जिसमें युवा विद्वान लेखक ने समकालीन समस्याओं का वैयक्तिक स्तर पर कुछ अपने विकल्प एवं सुझाव प्रस्तुत किये हैं। चाहे वह शिक्षा का गिरता स्तर हो या ग्लोबल आतंकवाद की समस्या, भ्रष्टाचार का वैश्विक प्रसार या ग्लोबल वार्मिंग, प्राकृतिक आपदाओं का आसन्न संकट, धार्मिक, भाषाई, जातीय असमानता, क्षेत्रीय असामंजस्य, महिलाओं के विरूद्ध हो रही घर की चौखट के साथ बाहरी हिंसा, बालश्रम, बाल अपराध एवं उनमें आने वाली समस्यायों तथा अधिकारों के लागू होने में प्रशासनिक दिक्कतें एवं पेचीदगियाँ, मानवाधिकारों का खुलेआम उल्लंघन, जन-हानि की समस्याओं को बड़े बेवाक तरीके से उठाने की कोशिश की है।
एक साहित्यकार में संवेदनशीलता और चिंतन दोनों का संयोग होना उसकी श्रेष्ठता की कसौटी माना जाता है। कभी-कभी इन दोनों में बड़ा असन्तुलन दिखाई पड़ता है। डॉ. वीरेन्द्र जी में इन दोनों का सन्तुलन होने के साथ-साथ आलोचनात्मक सजगता तथे रचनात्मक संवेदनशीलता भी देखी जा सकती है। मेरा अपना विचार है कि लेखन वही होता है जो कि लेखक स्वयं हुआ करता है। अगर लेखक सहज नहीं है अपने चिंतन में स्पष्ट नहीं है तो उसका लेखन भी उलझा हुआ होगा। डॉ. वीरेन्द्र अपने भीतर से जो महसूस करते हैं वही लिखते हैं इसलिए आपके लेखन में फ्राड बिल्कुल नहीं है क्योंकि मुझे ऐसा लेखन ही पसन्द है इसलिए एक लेखक के रूप में डॉ. वीरेन्द्र यादव को मैं स्वीकार करता हूँ। आपके सबसे अधिक लेख मुझे समकालीन समस्याओं से सम्बन्धित विषयों ने अधिक प्रभावित किया है।
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से अपनी मानवीय चिन्ताओं को व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि वर्तमान में मानव जाति के समक्ष सबसे बड़ी समस्या सम्मानपूर्वक जीवन यापन की है। वैश्विक स्तर पर अनेक मानवीय असमानताओं के चलते पग-पग पर व्यक्ति आज व्यक्ति तिरस्कृत, असुरक्षित एवं उत्पीड़ित नजर आ रहा है। मानव का मानव के द्वारा जितने कहर इन दिनों ढाए जाने लगे हैं उतने शायद पहले कभी सुनने एवं देखने को नहीं मिलते हैं। इसके साथ ही लेखक का मानना है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के कारण हम सांस्कृतिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसा लगता है कि हमारी चाहरदीवारी व खिड़कियाँ खुली रखने की प्रक्रिया में हमारे घर की सारी हवा ही निकल गयी प्रतीत हो गयी है और बाहर की दूषित हवा अंदर भर गई है। यही नहीं सदाचार, सहिष्णुता, अनुशासन, मर्यादित भावना और कर्मनिष्ठा आदि के प्रति हमारा दृष्टिकोण बड़ी तेजी से बिखरता जा रहा है और ये सब यूटोपिया प्रतीत हो रहे हैं। भ्रष्टाचार एवं आतंकवाद का काला साया चहुॅदिश अपने रक्त पिपाशु पंजों से उत्तरोत्तर आगे बढ़ता ही जा रहा है। संक्रमण काल की एक ऐसी वेला में मानव वर्तमान समय में इतिहास की उस रपटीली मोड़ पर आ खड़ा हो गया है, जहाँ पर स्थायित्व का खतरा हर स्तर पर बढ़ता ही जा रहा है। डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव मनुष्य के समक्ष आने वाली इन समस्याओं को स्वयं मनुष्य को ही दोषी ठहराते हैं इसके साथ ही उपभोक्तावादी जीवन पद्धति के साथ अन्य समस्याएं, शासन एवं शक्ति रूपी विचारधारा की भी देन मानते हैं।
डॉ. वीरेन्द्र यादव के समीक्षात्मक लेख अधिकांशतः कृतिपरक हैं ।आपने प्रायः वस्तुनिष्ठ, पाठपरक विवेचन किया है। स्पष्ट है कि समीक्षक के रूप में डॉ. वीरेन्द्र यादव का अवदान महत्वपूर्ण है। सम्प्रति ऐसी ही समीक्षाएं कालक्रममें सत समीक्षा की मानक सिद्ध होती हैं। डॉ. वीरेन्द्र यादव की प्रस्तुत पुस्तक अपनी बेवाक टिप्पणियों एवं भाषा की दृष्टि से सारगर्भित है। कहीं-कहीं कुछ शब्दों के प्रयोग नई समस्याओं एवं विवादों को जन्म देते प्रतीत होते हैं। पुस्तक का शीर्षक जितना सार्वभौमिक हैं उतनी ही व्याख्याएं, विकल्प एवं सुझाव भी व्यवहारिक एवं सैद्धान्तिक तौर पर सर्वमान्य से लगते हैं। डॉ. वीरेन्द्र के सारगर्भित सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक लेख उनके गम्भीर चिंतक की छवि उभारते हैं। परन्तु आपके समग्र कृतित्व से परिचित लोग जानते हैं कि आप एक उच्चकोटि के संवेदनशील लेखक हैं क्योंकि आपके लेखन में वादों, सिद्धान्तों की अभिव्यक्ति नहीं, प्रत्युत समकालीन परिवेश के विविध विवर्तों की स्पष्ट अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। कुल मिलाकर डॉ. वीरेन्द्र की यह पुस्तक समसामयिक ज्वलंत घटनाओं को बहुत व्यापकता के साथ हमारे समक्ष रखती है और एक नई समझ तथा नई बहस को जन्म देती है यही इस पुस्तक की सफलता है और उपलब्धि भी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें