बुधवार, 20 अप्रैल 2011

नई सहस्त्राब्दी का दलित आन्दोलन मिथक एवं यथार्थ-- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

दलित आन्दोलन के मिथक एवं यथार्थ
डॉ आशा वर्मा
पुस्तक - नई सहस्त्राब्दी का दलित आन्दोलन मिथक एवं यथार्थ
लेखक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - ओमेगा पब्लिकेशन्स 4373/4 बी., जी. 4, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य - 495.00
पेज - 22 + 530 = 552
ISBN - 978-81-8455-251-5

दलित आन्दोलन समकालीन साहित्य में एक ज्वलंत मुद्दे के रूप में चर्चित आन्दोलन माना जा रहा है। जो अभी विमर्श का केन्द्र बना हुआ है। समय-समय पर समसामयिक विषयों को चर्चा में लाने वाले मार्क्सवादी समीक्षक डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव चर्चित मुद्दों एवं हाशिए पर कर दिए लोगों के प्रति अपनी पैनी सोच-समझ रखने के कायल माने जाते हैं। उनके अपने जीवन के कटु अनुभव एवं एहसास उनकी सृजित एवं सम्पादित की गई पुस्तकों में सदैव देखने को मिलते रहते हैं। इसी तरह का एहसास उनकी सद्यः प्रकाशित कृति नई सहस्त्राब्दी का दलित आन्दोलन: मिथक एवं यथार्थ नामक पुस्तक में देखने को मिलता है। दलित जीवन की समस्याओं एवं प्रगति के लिए प्रबुद्ध देशवासियों के विचारों को आमंत्रित करती इस पुस्तक में भारतीय दलित समाज की दशा, दिशा एवं इनके भावी नियोजन पर प्रकाश डाल गया है। इन्साइक्लोपीडिया के रूप में दस खण्डों में विभाजित - दलित आन्दोलन की पृष्ठभूमि: जाति की अवधारणा एवं सामाजिक प्रक्रिया, दलित एवं भूमण्डलीकरण का मनोविज्ञान, क्रान्ति के आइने में दलित चेतना, दलित आन्दोलन में अग्रज एवं अनुज कर्णधारों का योगदान, दलित आन्दोलन के विकास में संवैधानिक प्रयासों का विश्लेषण, दलित आन्दोलन में आधी दुनिया की अनुगूंज, दलित आन्दोलन के साहित्यिक सरोकार, दलित आन्दोलन के समाजशास्त्रीय, राजनैतिक एवं आर्थिक संदर्भ, दलित उत्पीड़न के समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक संदर्भ, दलित आन्दोलन के विविध संदर्भ आदि को रखा गया है। अपने सम्पादकीय में डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव ने कुछ नये प्रश्नों को उठाकर दलित आन्दोलन के विमर्श में एक नई बहस को जन्म दिया है - सम्प्रति भारतीय राजकाज और समाज पर भारत के समक्ष दो दृष्टिकोण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं - एक तथ्य संयुक्त राष्ट्र का है, इसने दलितों की स्थिति का निर्मम पोस्टर्माटम किया है। दूसरी दृष्टिकोण भारत सरकार द्वारा गठित आयोगों एवं कमेटियों का (सच्चर एवं रंगनाथ मिश्र कमेटी) है। इनमें भेदभाव के अलावा कुछ नजर नहीं आता है लेकिन एक अलग तरह का जो दृष्टिकोण देखने को मिलता है वह अति चौकाऊ किस्म का प्रतीक होता है वह यह कि हमारा राजनीति दलतंत्र दलितों, गरीबों के पक्ष में कोई ठोस जन अभियान क्यों नहीं चलाता ? दलतंत्र बाजारवादी हिंसा के खिलाफ क्यों नहीं खड़ा होता ? जातिवादी राजनीति प्रायश्चित क्यों नहीं करती ? राष्ट्रवादी राजनीति ही परम वैभवशाली राष्ट्र के लिए आक्रामक युद्ध क्यों नहीं करती। अपने ही करोड़ों भूखे लोगों की व्यथा यह राष्ट्र क्यों बर्दाश्त करता रहता है ? कितने भी बड़े पद पर पहुँचने पर हमारी पहचान जाति के रूप में ही क्यों की जाती है ? आदि ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तरों से रूबरू प्रस्तुत पुस्तक आने वाले समय में समाज एवं राष्ट्र को इस तर शिदृत के साथ चिंतन एवं मनन को जन्म देगी ऐसा मेरा विश्वास है।

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