सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का रचना संसार : एक पुनर्मूल्यांकन


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र  का रचना संसार : एक पुनर्मूल्यांकन
डा0 कमलेश सिंह
6, कटरा रोड,
इलाहाबाद - 211002
     
         भारतेंदु जी वास्तविक अर्थों में  हिन्दी के युग निर्माता थे। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं को सृजित कर मन्डप की परिवर्तनशील प्रवृति के अनुरूप एक नया मोड़ दिया। उन्होंने समाज में नयी सोच को जन्म देकर अंधविश्वास एवं न्याय-अन्याय के प्रति जन समान्य को सचेत करने हेतु अपने साहित्य के द्वारा विशेष,नाटकों एवं काव्य के माध्यम से नर्इ चेतना जागृत करने की कोशिश की। उन्होंने अनेक नाटकों के माध्यम से चाहे वो अंधेरनगरी हो या वैशिवक हिंसा-हिंसा न भवति, प्रेम जोगिनी विषस्य विषमौषशम, चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नील देवी और सती प्रताप विधासुंदर, सत्य हरिश्चन्द्र, रानावली , पाखण्ड विडम्बन, धनंजय विजय, मुद्राराक्षस कर्पुर्मनजरी  मंजरी और दुर्लम बन्धु। इन सभी नाटकों में कहीं न कहीं कोर्इ न कोर्इ उददेश्य यथार्थ और आदर्श रहा है।वे अंग्रेजों के क्रिया कलापों के सख्त खिलाफ थे तभी तो उन्होंने एक रात में अंधेर नगरी नाटक लिख डाला,जिसका मंचन आज भी होता है। क्योंकि राजा (राजनीति) का दबाव है -निर्धन मजबूर है। गरीब अैर गरीब हो रहा है। अमीर और अमीर हो रहा है, असमानता की खार्इ बढ़ती चली जा रही है,
           भारतेन्दु जी के इन्हीं सरोकारों को ध्यान में रखते हुए इय सम्पादित पुस्तक को डा. वीरेन्द्र यादव ने सात भागों में  व्यकितत्व-कृतित्व के आइने में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,  भारतीय राष्ट्रवाद, स्वाधीनता संग्राम और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाटयादर्श : परिसिथतिया एवं प्रवृतितयां, भारतेन्दु युगीन काव्य : एक समेकित विश्लेषण, भारतेन्दु और हिन्दी प्रहसन की उत्कृष्ट खोज, भाव और कला की दृषिट से भारतेन्दु का व्यंग्य साहित्य, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साहित्य में वस्तुपरकता एवं विषयपरकता की दृषिट से मूल्यांकन, विभाजित किया है।
       भारतेन्दु जी की लेखकीय पृष्ठभूमि एवं परम्परा को रेखांकित करते हुए पुस्तक का मानना है कि हिन्दी के जन्मदाता भारतेन्दु कोर्इ साधारण व्यकित नहीं थे ऐसा असाधारण साहित्यकार,विलक्षण प्रतिमा के धनी का जन्म लेना हम भारतीय एवं हिन्दी साहित्य प्रेमियों के लिए गर्व का विषय है। आज वक्त बदल गया है और 21वीं सदी का प्रथम दशक समापन की ओर है पर भारतेन्दु और उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक एवं कालजयी प्रतीत हो रहा है इसमें कोर्इ शक नहीं है कि अंधेरनगरी की राजनीति 21वीं सदी में भी विधमान है, राजा की कुर्सी वही है पर राजा बदल गया है। निसंदेह घिसी पिटी परम्परा से हटकर साहित्य को जनजीवन से जोड़कर प्राचीनम और नवीन आदर्श और यथार्थ शिष्ट और लोक की दो  पृथक घाराएं लेकर चलने वाले भारतेन्दु ने प्राचीन युग का अनुगमन तो किया ही पर साथ ही आधुनिक युग का प्रवर्तक होने के नाते नवीन सृजनात्मकता से भी साहित्य को समनिवत किया। जो हिन्दी साहित्य के इतिहास में आज अजर अमर है।
        अंधेर नगरी में उठाए गए प्रसंग तत्कालीन समय में तो ज्वलन्त थे ही और आज भी हैं। भ्रष्टाचार उस समय भी था और आज भी है जो भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के वक्तव्यों से जाहिर हो रहा है। सन 1889में लिखा गया यह नाटक तत्कालीन राजाओं के कुशासन और उसके रजवाड़ों में प्रजा की दुर्दशा पर व्यंग्य करता ही है साथ ही कठोर अंग्रेजी शासन व्यवस्था पर भी प्रहार करता है इसके साथ ही यह प्रहसन अप्रत्यक्ष रूप से अंगे्रजी शासन व्यवस्था उसके रूप से अंगे्रजी शासन व्यवस्था उसके आर्थिक शोषण और न्याय व्यवस्था की कटु आलोचना भी करता है। भारतेन्दु का यह नाटक 21वीं सदी में भी समसामयिक लगता है। जैसे आज ही लिखा गया है अंतर है तो सिर्फ चेहरों का। पात्र और व्यवस्था वही है पर चेहरे बदल गये हैं।
ऐसे सेत एक से जहाँ कपूर कपास ऐस देश कुदेश  में कबहुं कीजै बाप भूमण्डलीकरण के इस युग में आज कौन किसी की सुनने वाला है, भागम भाग मात्र है, एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ है जो जीता वही सिकंदर ।
       भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य के माध्यम से जो अपनी रचनाओं को जनता के बीच एक सवाल लिए खड़ा है ? यह न्याय व्यवस्था कब सुधरेगी,  असमानता कब दूर होगी। राजा (राजनीति) कब बैकुंठ जाएगा, गोवर्धनदास जैसे महात्मा कब आयेंगे। भारतेन्दु  हरिश्चन्द्र ने अपने साहित्य के माध्यम से लोगों के समक्ष कुछ सवाल उठाये और उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया और ऐसा प्रतीत होता है वे अपने युग से भी आगे के युग की नब्ज जान गये थे। तभी तो राजनीति,सामाजिक परिसिथतियों का यथार्थ चित्रण वे कर गये जो आज भी नर्इ सहस्त्राब्दी में जीवंत हैं। भारतेंदु जैसी तीखे व्यंग्य और प्रहार करने वाली रचनांए आगे आने वाली पीड़ी का कितना मार्गदर्शन कर पाएंगी यह तो वक्त बताएगा पर यह तो सच है कि आज आवश्यकता है भारतेन्दु जैसे व्यकितत्व की और आज की समस्याओं पर संजीदा साहित्य लिखने  की क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है, यह दर्पण जो एक नया मार्ग दिखाता है।
पुस्तक का नाम-भारतेन्दु हरिश्चन्द्र  का रचना संसार : एक पुनर्मूल्यांकन
 संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-16+277-293
ISSN.978.81.8455.290.4

संस्करण-प्रथम.2011
मूल्य-600.00
ओमेगा पबिलकेशन्स,43784/एळ4एजे.एम.डी.हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002



 

आतंकवाद का समकालीन परिदृश्य : स्वरूप एवं समस्याएं

आतंकवाद का समकालीन परिदृश्य  : स्वरूप एवं समस्याएं
डा0 राजीव कुमार,
असिस्टेण्ट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
के0के0 पी0जी0 कालेज, इटावा
     इस पुस्तक के माध्यम से डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव का मानना है कि आतंकवाद आज अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, समृद्धि और सिथरता के लिए ऐसी चुनौती बन गया है जिससे सम्पूर्ण विश्व किसी न किसी रूप में आहत है। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के विचारक विद्वान बि्रयां क्लेजर का ऐसा मानना है कि 20वीं शताब्दी का आंतकवाद अपने स्वरूप में विलक्षण है, यह समाज और राज्य के लिए कंलक जैसा है, यह अपने स्वरूप में वैशिवक है अर्थात विश्वभर के आतंकवादियों में आपसी भार्इ-चारा है क्योंकि वे मूलभूत विश्वासों एवं कार्यपद्धति में एक जैसे हैं । वे एक दूसरे के हथियारों की आपूर्ति में सहायता करते रहते हैं। सामान्यत: आतंकवादी संगठन के सदस्य सुशिक्षित युवक एवं युवतियाँ होती हैं। आतंकवाद की परम्परा पर दृषिटपात करते हुए राबर्ट कीडलैण्डर इसे पूरे फ्रांस की क्रानित से सम्बद्ध करते हुए जेकोबिन तानाशाही को इसका मूल बताते हैं। रूसी क्रानित ने आतंकवाद को प्रश्रय दिया। आगे चलकर चीनी नेता माओ-त्से-तुंग ने इसे विस्तार प्रदान किया। पुस्तक में लेखकों की राय है कि आधुनिक आतंकवाद का प्रारम्भ बीसवीं शताब्दी की शस्त्रीकरण की प्रक्रिया से माना जा सकता है। इस समय जो राजनैतिक प्रतिद्वनिद्वता चली उसमें दो विरोधी विचारधाराओं का अभ्युदय हुआ। फलस्वरूप सत्ता हेतु उत्पन्न संघर्ष ने भय का वातावरण विनिर्मित किया,इससे घातक हथियारों में वृद्धि हुर्इ और धीरे-धीरे इसी प्रवृतित ने आतंकवाद का रूप ले लिया।
      पुस्तक में कुछ प्रश्न  उठाए गए हैं  कि आतंकवाद के उत्पन्न होने के क्या कारण हैं ? इसका मुख्य उददेश्य क्या है ? क्या आतंकवादी तरीका अपनानें वालों के समक्ष अन्य मार्ग नही हैं ? यदि अन्य मार्ग हैं तो वे इन्हें क्यों नही अपनाते ? क्या आतंक के द्वारा निर्माण सम्भव है ? क्या न्याय पाने या अन्यायियों को दण्ड देने का यही तरीका है ? क्या स्वयं को न्याय का पुरोधा बताने वाले ये आतंकी मानवता या इंसानियत की अदालत में अपना बचाव कर सकते हैं ? ये कुछ ऐसे ज्वलंत प्रश्न हंै जिनसे समस्त विश्व रूबरू है। यदि आतंकवाद के उत्पन्न होने के कारणों पर विचार किया जाय तो यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि इसके कोर्इ निशिचत कारण नहीं हैं। कुछ कारणों का रेखांकन अवश्य किया जा सकता है। अमेरिका की आतंकवाद सम्बन्धी नीति जिसे कुटिल नीति कहा जाय तो अधिक संगत होगा, आतंकवाद को पल्लवित करने हेतु सर्वाधिक उत्तरदायी है। स्वयं को विश्व की एकमात्र महाशकित बनाये रखने के लिए ही अमेरिका ने शीतयुद्ध के दौरान जो घातक नीतियाँ अपनार्इ उन्हीं का प्रतिफल है- अलकायदा एवं ओसामा बिन लादेन। मानवाधिकार हनन, बलात्कार, बंधुआ मजदूरी, बालश्रम, न्यायिक हिरासत में मौतें, पुलिसिया उत्पीड़न, बेरोजगारी, आर्थिक शोषण, शारीरिक-मानसिक दुव्र्यवहार, यौन शोषण, युद्ध हेतु हिंसक बनाया जाना, नशीले पदार्थों का सेवन, एडस, बच्चों का अत्यधिक उत्पीड़न आदि ऐसे कारक हैं जिनके द्वारा भी आतंकवाद को बल मिलता है। इसके समाधान का कोर्इ निशिचत उपाय नही हैं। उा0 वीरेन्द्र यादव की इस महत्वपूर्ण प्रस्तुत पुस्तक में अड़तीस विद्वानों एवं  पाच खण्डों के शीर्षक  आतंकवाद का वैशिवक परिदृश्य : एक विश्लेषण,आतंकवाद भारतीय परिदृश्य  : चुनौतिया एवं समाधान की दिशाएं,भारतीय परिदृश्य में आतंकवाद एवं नक्सलवाद : आंतरिक सुरक्षा के समक्ष प्रमुख चुनौती, आतंकवाद के उन्मूलन में  साहित्य  एवं संगीत की भूमिका ,वैशिवक एवं भारतीय परिदृश्य में आतंकवाद के विविध सरोकार में विभाजित है। अनेक संदेह एव रहस्य को उजागर करती प्रस्तुत पुस्तक में सत्य को उदघाटित किया गया है।
    एक सच्चार्इ यह भी है कि आतंकवाद के वैशिवक स्वरूप को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि मुसलमान ही आतंकवादी घटनाओं में शामिल हैं किन्तु यह रूढ़ एवं एकाकी दृषिटकोण है जो मात्र पूर्वाग्रह पर आधारित है। अन्यथा इस्लाम शानित का मजहब है। यह अपने अनुयायियों को यह आदेश देता है कि बूढ़ों, बच्चों और औरतों को कत्ल न करो, किसी भी धर्मस्थल में बैठे हुए भक्तों व संन्यासियों का कत्ल न करो, दुश्मन को जिन्दा न जलाओ, किसी जख्मी पर हमला मत करो और ऐसे व्यकित से न लड़ो जो लड़ने की हालत में न हो। पुस्तक में आवाहन किया गया है कि आतंकवादी घटनाओं में आ रही अप्रत्याशित वृद्धि को देखते हुए मुसिलम समाज के बुद्धिजीवी एवं धार्मिक नेताओं को सामने आकर समाज एवं राष्ट्र की भलार्इ के लिए गहन जन संवाद करना चाहिए। कटटरपंथ को नकारते हुए उन्हें इंसानियत एवं असली मजहबी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करना चाहिए, जिससे गुमराह एवं भटके हुए मनुष्यों को राहे-खुदा पर लाया जा सके।वहीं दूसरी ओर लेखकों का नजरिया कुछ और है वह यह कि आतंकवादी घटनाओं को देखते हुए इनसे निपटने के सरकारी उपायों को शुतुरमुर्गी ही कहा जा सकता है क्योंकि अनेक बार ऐसा देखा गया कि केन्द्रीय एवं राज्य स्तरीय खुफिया तंत्रों में परस्पर सामंजस्य का अभाव है। आम लोगों को सरकारी तंत्र के इस रवैये को देखकर असंतोष ही होता है। अभी तक जितने भी आतंकी हमले हुए हैं उनसे सम्बनिधत एक भी मामला सुलझाया नही जा सका है। यह हमारी न्याय व्यवस्था एवं प्रशासनिक तंत्र की असफलता नही तो और क्या है ? आज भ्रष्टाचारी अधिकारियों और राजनेताओं में गठजोड़ हो गया है। हमारी सीमा सुरक्षा व्यवस्था भी उन्नत नही है जिससे आतंकवादी आसानी से देश में घुसकर आतंकी वारदात करके भ्रष्टाचारी अधिकारियों एवं राजनेताओं के सहयोग से बच निकलते हैं। प्रत्येक आतंकी वारदात के बाद हमारे मंत्री, प्रधानमंत्री एवं अन्य जिम्मेदार लोग आतंकवाद से कड़ार्इ से निपटने का झूठा आलाप करते हैं और देश तथा समाज को झूठा दिलासा दिलाते हैं। आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा ? ऐसा कौन समाज है जो ऐसी घटनाओं के बाद सदैव के लिए अपने घर में दुबक जायेगा ? लोग बहादुरी दिखाने के लिए नही अपितु रोजी-रोटी की मजबूरी में भय एवं दशहत के माहौल में भी घर से निकलने को मजबूर हैं। यह अत्यन्त विचित्र है कि आम आदमी की इस सहज स्वाभाविक मजबूरी को ही हमारे नेता साहस की मिसाल कहते हैं।
  अनेक देशों का उदाहरण देते हुए सम्पादक का मानना है कि अमेरिका ने जिस तरह से आतंकवाद को युद्ध और हमला माना है, यही नीति भारत को भी अपनानी होगी। इधर के वर्षों में आतंकवादियों का दुस्साहस एवं पैठ बहुत बढ़ी हुर्इ दिख रही है। जब आतंकवाद की चर्चा की जाती है तब यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि समाज के मानवीय पक्षों के प्रति भी ध्यानाकर्षण किया जाय। आन्दोलन या क्रानित या आतंकवाद चाहे किसी भी तरह का हो उससे सर्वाधिक हानि मात्र मानवता या इंसानियत की ही होती है। इसलिए आतंकवाद के सभी प्रारूपों को इंसानियत के खिलाफ भयानक गुनाह मानते हुए इससे लड़ने के लिए ऐसे कठोर अन्तर्राष्ट्रीय कानून बनाये जाने चाहिए जो आतंकवादियों के भीतर खौफ पैदा कर सकें। हाँ, केवल कठोर कानून बनाना ही पर्याप्त नही है अपितु ऐसे नियमों-कानूनों को शिददत से अमली जामा पहनाया जाना चाहिए। प्रत्येक देशों की खुफिया एजेंसियों में तारतम्य स्थापित किया जाय जिससे आतंकवादी गतिविधियों की पूर्व सूचना मिल सके। नागरिकों में राष्ट्रीय भावना का प्रसार, सभी धर्मों के अनुयायियों में आपसी भार्इ-चारा, न्यायपूर्ण-भेदभाव रहित शासन प्रणाली, पारदर्शी एवं सर्वजन हिताय नीतियाँ आतंकवाद को निर्मूल  करने हेतु आवश्यक हैं। निर्दोष-निरपराध लोगों में दशहत पैदा करने वाले, इंसानियत की हत्या करने वालों का मकसद चाहे जो भी हो किन्तु उनकी ऐसी गतिविधियाँ बर्बरता के अतिरिक्त और कुछ नही कही जा सकतीं। भारत के लिए यह उचित समय है जब आतंकी बर्बरता के खिलाफ सम्पूर्ण राष्ट्र को एकजुट किया जाय। एकजुटता ऐसी हो जिससे आतंकवादियों ही नही वरन उनके समर्थकों एवं संरक्षणदाताओं को भी बेपर्दा किया जा सके।
   डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव की विशेषता यह है कि मात्र एक साहित्यकार के रूप में नहीं अपितु विशिष्ट वैज्ञानिक परख के साथ वे समाज के प्रत्येक क्षेत्र से संबंधित ज्वलंत मुददों पर पुस्तकों  का सम्पादन कर अपनी विलक्षण प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत कर चुके हैं एवं वर्तमान में उनका यह प्रयास जारी है।जागरूक पाठकों को प्रस्तुत पुस्तक अवश्य पसन्द आयेगी।
पुस्तक - आतंकवाद का समकालीन परिदृश्य  : स्वरूप एवं समस्याएँ
लेखक - डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
पेज -  16 + 303 - 319
ISSN - 978-81-8455-321-5
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य - 795.00
प्रकाशक - ओमेगा पबिलकेशन्स 43734 बी., जी. 4, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली


 

 
  सवालों के चक्रव्यूह में शिक्षाडा0 विजय कुमार वर्मा
प्रवक्ता -समाजशास्त्र विभाग
उ0प्र0 विकलांगउद्धार डा0 शकुन्तला मिश्रा वि0वि0, मोहान रोड, लखनऊ।
   

        प्रस्तुत पुस्तक  देश के विभिन्न प्रान्तों के उच्च शिक्षा जगत से सम्बद्ध प्राध्यापकों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, दलित चिन्तकों,मनोवैज्ञानिकों एवं वैज्ञानिकों के सार्थक चिन्तन, मनन एवं गम्भीर विचारों को रखा गया है।
 इक्तीस विद्वानों एवं आठ भागों  में प्राचीन काल में शिक्षा का स्वरूप,अवधारणा एवम उन्नयन के उपाय, भारत में  शिक्षा के बदलते आयाम,(प्राथमिक,परिषदीय एवम माध्यमिक शिक्षा के विशेष परिप्रेक्ष्य में ) अंगे्रजों का  भारत में शिक्षा के प्रति दृषिटकोण, भारतीय संविधान में शिक्षा अधिकार अधिनियम : एक तातिवक विश्लेषण ,भारत में उच्च शिक्षा  : समस्याएं एवम समाधन, बदलते परिदृश्य में   महिला (स्त्री )शिक्षा के आयाम, साहित्य में शिक्षा के विविध सन्दर्भ, भारत में शिक्षा चिन्तन के विविध सरोकार बाटा गया है।
          यह कहना विवाद का विषय  हो सकता है कि आज विज्ञान से प्रोद्योगिकी  और प्रोद्योगिकी से पूंजीवाद तथा निजीकरण की स्पर्धा से मानवता का âास हो रहा है। भारतीय समाज को इस दयनीय सिथति से उबारने का कार्य उचित शिक्षा की दिशा निर्धारित किये जाने पर ही सम्भव हो सकेगा। इस दृषिट से अब समय आ गया है कि शिक्षा जगत से सम्बद्ध व्यकित एवम इससे जुड़ी संस्थाएँ गम्भीरता से चिन्तन करें कि शिक्षा की विशाल व्यवस्था को समग्र संसार से बाहरी रूप में संवाद करने तथा इससे संलग्न समाज के साथ अन्तर्सम्बन्ध बनाये रखते हुये उनका सहज विकास कैसे किया जाये ? वर्तमान में शिक्षा के इस मूल प्रश्नों एवं दर्शन को प्राय: विश्व के सभी समाजों ने यथासम्भव स्वीकार किया है जिसके फलस्वरूप प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा का विस्तार एवं प्रसार सम्भव हो सका है। यहा एक तथ्यएवं सत्य यह भी है कि शिक्षा के विस्तार व प्रसार की विशद प्रक्रिया में समय-समय पर शिक्षाविदों द्वारा विचार विनिमय भी किया गया है एवं इसके मार्ग में आने वाली बाधाओं पर चर्चा के साथ-साथ भविष्य के लिये कार्ययोजना की अनुशंसायें भी की गयीं परन्तु इस यक्ष प्रश्न से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज भी उचित शिक्षा की दशा के अनुरूप इसकी दिशा निशिचत नहीं हो पार्इ है।
   वर्तमान सन्दर्भों की बात की जाय तो वैश्वीकरण की प्रकि्रया में उत्पन्न चुनौतियों से शिक्षा भी अछूती नहीं रही। वैश्वीकरण के इस दौर में शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो रहे हैं। हमारी भारतीय उच्च शिक्षा अभी तक प्रसार की समस्या से जूझ रही थी कि संख्यात्मक शिक्षा  का स्थान  गुणात्मक शिक्षा ने ले लिया। भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज और भौगोलिक दृषिट से इतने बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र में गुणवत्ता प्राप्त करना आज शिक्षा का महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया है।
     वर्तमान में भारत में शिक्षा के क्षेत्र में मुख्य चर्चा का विषय उच्च शिक्षा की भूमिका बन गया है। विश्वविधालयों, महाविधालयों तकनीकी संस्थानों ( प्रबन्ध संस्थानों ) और अन्य व्यवसायिक संस्थानों का पाठयक्रम, अधोसंरचना, शिक्षण पद्धति परीक्षा पद्धतिमूल्यांकन, प्रशासन और प्रवेश प्रकि्रया के स्तर और मापदण्डों के मूल्यांकन और समीक्षा का दौर चल रहा है। जिस श्रृंखला में अनेक परिषदोंनिकायों का गठन किया गया है। प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि पशिचमी राष्ट्रों की उच्च शिक्षा पद्धति का अंधानुकरण किया जाय अथवा भारतीय समाज की आवश्यकताओं और परिसिथतियों के अनुसार मापदण्ड निर्धारित किये जायें। इस पर सभी बुद्धिजीवियों के समीक्षात्मक, प्रगतिशील तथा वैज्ञानिक तर्कों से युक्त विचारों को इस पुस्तक में रखा गया है।
         इस पुस्तक के सम्पादन के पीछे हमारी मुख्य भावना यह रही है कि इसके माध्यम से शिक्षा से सम्बनिधत अनेेक वैचारिक अवधारणाओं की अनसुलझी गुतिथयों को बेबाक तरह से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। जिससे जनसामान्य में चेतना जागृत करना है। इसके तहत यह  भी उददेश्य  कहीं न कहीं निहित है कि वे अपना विकास किसी शकित के ऊपर न मानकर स्वयं अपने स्तर पर करें तभी उनका हित हो सकता है।
मेरा ऐसा विचार है कि प्रस्तुत पुस्तक न केवल संविधान विशेषज्ञों, विधिशोधार्थियों, विधिवेत्ताओं, विधि व्याख्याताओं, प्राध्यापकों, राजनीतिक एवं सामाजिक चिंतकों बलिक आम नागरिक के लिए भी उपयोगी एवं प्रेरणादायक सिद्ध होगी।
पुस्तक -   सवालों के चक्रव्यूह में शिक्षा
लेखक -   डा. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक -   ओमेगा पबिलकेशन्स 43734 बी., जी. 4, जे.
    एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली
मूल्य -    795.00,सं.2011
पेज -     14 + 312 - 326
ISSN -    978-81-8455-289-8

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

भारतीय हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा : एक मूल्यांकन

    भारतीय  हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा  : एक मूल्यांकन
   डा. सियाराम,

 वरिष्ठ प्रवक्ता

 हिन्दी विभाग, तिलक महाविद्यालय , औरैया
पुस्तक का नाम- भारतीय  हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा  : एक मूल्यांकन
संपादक- डा0 देवेन्द्र नाथ सिंह एवं डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-24+33-360
ISSN.978.93.81630.07.5
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य-900.00
पैसिफिक पबिलकेशन्स-एन.187 शिवाजी चौक, सादतपुर एक्सटेंशन,दिल्ली-110094
                 डा0 देवेन्द्र नाथ सिंह एवं डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव के कुशल संपादन में संपादित पुस्तक 23 अध्यायों एवं सात खण्डों में विभाजित की गयी है। जो इस प्रकार है। हिन्दी सिनेमा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-दशा एवं दिशा, सिनेमा, संस्कृति  एवं समाज के बदलते अभिप्राय, विज्ञापन, टेलीविजन एवं  जनसंचार माध्यम का व्यवसायिक त्रिकोण, साहित्य एवं  सिनेमा के बदलते सरोकार,हालीवुड बनाम बालीबुड : सम्बन्धों के बदलते सन्दर्भ,निर्माता, निर्देशकों  से फिल्म समीक्षकों से बातचीत के अंश एवं फिल्म समीक्षाएं, हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा के विविध सन्दर्भ आदि।
        देश के चर्चित विद्वानों के विचारों को समेटे भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा को अपने तरह से विवेचित करती इस पुस्तक में फिल्मों की तकनीक एवं वर्तमान समय तक अनेक दुर्लभ जानकारियाँ दी गयी हैं। सिनेमा सदैव ही सामाजिक बदलाव करने में अग्रणी रहा है। सिनेमा अभिव्यä कि सर्वाधिक प्रभावशाली एवं सशक्त माध्यम है, जो किसी घटना, विचार को मनोरम ढंग से प्रस्तुत करता है। व्यä किे अन्त:करण को संस्पर्शित कर उसे सकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर करता है। सिनेमा मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है अपितु वह अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चितेरा और भविष्य की कल्पना है। सामाजिक परिवर्तन, लोक जागरण तथा बौद्धिक क्रांति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावकारी माध्यम है जिसने सभी उम्र के लोगों के मानस को झंकृत कर दिया है। राष्ट्रीय एकता, अछूतोद्धार, नारी जागरण, अन्याय,शोषण भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसे राष्ट्रीय हित के प्रश्नों पर जन-जन को जागरित करने वाला माध्यम सिनेमा ही है। फिल्मों के किसी एक दृश्य या संवाद से प्रभावित होकर दुर्दान्त अपराधी भी महात्मा बुद्ध बन जाता है। 'जागते रहो, 'नन्हा फरिश्ता जैसी फिल्मों ने पत्थर दिल डाकुओं को भी अच्छा इंसान बना दिया। 'डा0 कोटनीस की अमर कहानी, 'पड़ोस', 'संत ज्ञानेश्वर', 'पुकार', 'आह', 'मदर इंडिया', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'इंसानियत', 'आदमी', 'दर्द का रिश्ता', 'गाइड' आदि फिल्मों ने दर्शको के समक्ष अनेक ज्वलंत प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया जिसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया।
       पुस्तक में यह दर्शाने की कोशिश की गर्इ है कि आज भारत एक ऐसा देश बन चुका है जहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्मों का निर्माण होता है। हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के दर्शकों की दुनिया में सबसे ज्यादा तादाद है। इस समय देश भर में सिनेमा की दुनिया में करीब लाखों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला हुआ है। औसतन  एक हजार फिल्मों का निर्माण प्रतिवर्ष किया जा रहा है। फिल्में देखने वालों की संख्या रोजाना करोडों़ आंकी गर्इ है। भारतीय सिनेमा बाजार को करीब ढार्इ अरब अमरीकी डालर का आंका गया है। बंबइया फिल्में जिसे बालीवुड भी कहा जाता है, भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा हिस्सा है। इसके जानकारों का कहना है कि बालीवुड में बनने वाली पाँच से दस प्रतिशत फिल्में ही ऐसी होती हैं जोकि वास्तव में आर्थिक दृषिट से सफल और पैसा कमाने वाली साबित होती हैं जबकि बाकी फिल्में या तो डिब्बों में बंद रह जाती हैं या फिर पर्दे पर बहुत कम समय के लिए टिक पाती हैं तथा पर्याप्त दर्शकों को आकर्षित करने में असफल होती हैं। ऐसी ही सिथति क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों की है। फिल्म को लोकप्रिय बनाने और उन्हें अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचाने के लिए मसाला फिल्में बनार्इ जाती हैं जिनमें आइटम सांग से लेकर गाली गलौज तक अपनाया जा रहा है। हिंसा, अपराध और चालू संगीत के जरिये उन्हें अगली सीटों को भरने लायक बनाने का प्रयास किया जाता है। इसके बावजूद हर साल दर्शकों को आकर्षित करके मुनाफा कमाने वाली फिल्मों की संख्या गिनी-चुनी ही रहती है और अधिकतर फिल्में उस रास्ते पर चलती दिखार्इ देती हैं जिन्हें डिजास्टर और फ्लाप जैसी संज्ञा दी जाती है। इस कारोबार के जानकारों का कहना है कि फिल्मी दुनिया देखने में तो ग्लैमरस और लाभ का सौदा दिखार्इ देता है लेकिन वास्तविकता इससे बहुत दूर है।
               ज्ञानवर्धन, उपयोगी एवं जनसामान्य की समझ लायक बनाने के लिए इस सम्पादित पुस्तक में अनेक विद्वतजनों के विचारों को लिया गया है। इस आशा विश्वास एवं नेह के साथ कि प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक सिनेमा जैसे समसामयिक विषय पर आम-जन के मध्य जिज्ञासा एवं उत्सुकता पैदा कर उप्हें सोचने को विवश करेगी।


शताब्दी की दहलीज पर भारतीय सिनेमा

शताब्दी की दहलीज पर भारतीय सिनेमा
संघर्ष और मुक्ति  के नये क्षितिज
रामबाबू गौतम,
 220,व्हीलर स्ट्रीट क्लीफसाइट पार्क ,वुऊ  जर्सी-07010
     


 लेखक एवं कला मर्मज्ञ डा0 वीरेन्द्र यादव का मानना है कि सिनेमा समाज का दर्पण होता है। मानव-मन को सुख, दुख, क्रोध, करूणा, भय, विभ्रम, विलास आदि की मार्मिक अनुभूति होती है तो सहसा ही वह इन अनुभूतियों से प्रेरित होकर मनोभावों को प्रकट करता है। वह जब भाव सम्पृक्त होकर मस्त झूमने लगता है तो उसी दशा में उसके बहिनिर्गत छलकते हुये भाव सहसा प्रदर्शित हो जाते हैं उन्हीं प्रकटित भावों का स्वरूप सिनेमा में देखने को मिलता है, जिससे दर्शक भी रोमांचित हो जाते हैं। इस रूप में हम पाते हैं कि सिनेमा के माध्यम से हमारे मूल्यों  का अनवरत प्रवाह सम्भव है। हिन्दी सिनेमा के विकास की एक लम्बी परम्परा है, जिसे मात्र कुछ पृष्ठों में बांध पाना असम्भव सा है परन्तु समकालीन परिवेश में सिनेमा की उपयोगिता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि आज उसको मानव-जीवन से भिन्न नहीं किया जा सकता है। हमारी सांस्कृतिक धरोहर को जन-जन तक पहुचाने का सक्षम साधन सिनेमा ही है। नि:संदेह सिनेमा आज भूमंडलीकरण के युग में भी अपनी अहम भूमिका अदा कर रहा है। फिल्मों के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रकाशित किया जा रहा है। इसलिए यदि सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाये तो कोर्इ अतिशयोकित नहीं होगी। हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता का कारण भाषागत विशेषताएं भी हैं। हिन्दी सरल, सुबोध व लालित्यपूर्ण भाषा है, जिसके माध्यम से भावों की अभिव्यकित सहजता से हो जाती है। यही कारण है कि अन्य भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता बढ़ रही है। 
            पुस्तक की मान्यता है कि मूक अभिनय से शुरू हुआ भारतीय सिनेमा अब सैटेलाइट से देश भर के सभी डिजीटल सिनेमाघरों में पहुँच गया है। आज हीरो ही नहीं हीरोइन भी नंबर वन हैं। करीना कपूर, कैटरीना कैफ, विधाबालन, प्रियंका चोपड़ा, कंगना रानावत, रानी मुखर्जी की फिल्में जबरदस्त हिट होकर एक-एक फिल्म करोड़ो का व्यवसाय कर रही हैं। जहाँ सन 2011र्इ0में बाड़ीगार्ड, रावन, जिंदगी न मिलेगी दोबारा, मेरे ब्रदर की दुल्हन, नो वन किल्ड जेसिका, सात खून माफ, डान-2, आदि व्यावसायिक सफल फिल्में आर्इं। वहीं सन 2012र्इ0 की प्रमुख फिल्में जो आ चुकी हैं या आने को हैं कृष-2, सन आफ सरदार, हीरोइन, टाइटेनिक 3डी, अगिनपथ, धूम-3, एक था टाइगर, एक मैं और एक तू, फरारी की सवारी, बोल बच्चन। निशिचत ही ये फिल्में सन 2012र्इ0 के सिनेमाघरों में एक नयी मिसाल कायम कर रहीं हैं।
           अनेक प्रश्नों से रूबरू कराती यह पुस्तक नर्इ-नर्इ जानकारियाँ भी उपलब्ध कराती है कि प्रश्न यह उठता है कि क्या सिनेमा का दूषित प्रभाव ही समाज अथवा संस्कृति पर पड़ता है? जिस प्रकार यह संसार स्वयं में न खराब है, न अच्छा है बलिक असली बात तो यह है कि हम उसे किस प्रकार से देखते हैं। हमारी विचार पद्धति और जीवन मूल्यों के अनुरूप हमारी जीवन शैली भिन्न-भिन्न प्रकार की हो जाती है। ठीक यही बात सिनेमा पर भी लागू होती है क्योंकि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं- अच्छा और बुरा, अब हम उसमें से अच्छार्इ को आत्मसात करते हैं या मात्र बुरार्इ को ही ग्रहण करते हैं यह हमारे विवेक पर ही निर्भर करता है। उदाहरण के तौर पर फिल्म 'मुन्ना भार्इ एम.बी.बी.एस. ने जहाँ गाँधीगीरी दिखार्इ, वहीं आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों व टेक्नोलाजी के माध्यम से उसका दुरुपयोग कर छात्रों को परीक्षा में नकल करने का एक आसान रास्ता दिखाकर गुमराह भी किया। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसके किस पक्ष को कितना और कैसे आत्मसात करते हैं।
             एक सुझाव के रूप में सम्पादकीय में डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने कहा है कि आज के सन्दर्भ में यह अनिवार्य हो गया है कि फिल्म निर्माता अपने सामाजिक दायित्वों का र्इमानदारी से निर्वाहन करें क्योंकि फिल्म समाज का आइना है। फिल्म निर्माण एक कलात्मक अभिव्यकित है जो दर्शकों को प्रभावित करने के साथ उनके मनो मसितष्क और भावनाओं पर कब्जा जमाती है। इस प्रकार यह महत्वपूर्ण है कि एक निर्माता का समाज के प्रति महत्वपूर्ण दायित्व बनता है। ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि फिल्मों में मनोरंजन के साथ यथार्थ का भी ऐसा चित्रण हो कि फिल्में सामाजिक सरोकार से वास्ता रखते हुये बनें। आज के समय में जहाँ संस्कार और सभ्यता को लोग गुजरे जमाने की चीज मान रहे हैं , वहाँ निर्माता को एक आदर्श फिल्म बनाने में भय महसूस होता है कि उनका व्यवसाय डावाडोल न हो जाये। इन्हीं कुछ समस्याओं,जानकारियों और सुझावों को दर्शाते हुद इसमें अनेक नवीन जानकारियाँ दी गर्इ हैं। प्रस्तुत पुस्तक 19 विद्वानों के  लेखों  एवं पाच खण्डों में विभाजित है। जो इस प्रकार हैं। हिन्दी सिनेमा की ऐतिहासिक विकास यात्रा :एक मूल्यांकन, निर्माता, निर्देषकों  से फिल्म समीक्षकों से बातचीत के अंष एवं फिल्म समीक्षाएं, सिनेमा का यथार्थवादी स्वरूप :सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक  सरोकार का व्यवसायिक त्रिकोण, फिल्म एवं मीडिया : सम्बन्धों के बदलते सन्दर्भ, हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा के विविध सन्दर्भ ।
       ज्ञानवर्धन, उपयोगी एवं जनसामान्य की समझ लायक बनाने के लिए इस सम्पादित पुस्तक में अनेक विद्वतजनों के विचारों का सहारा लिया गया है। कला से प्रेम करने वालो को यह पुस्तक अवश्य पसंद आयेगी।
पुस्तक -     शताब्दी की दहलीज पर भारतीय सिनेमा संघर्ष और मुकित के नये क्षितिज
लेखक -   डा. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक -   ओमेगा पबिलकेशन्स 43734 बी., जी. 4, जे.
    एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंंज, नर्इ दिल्ली
मूल्य -    695.00
पेज -     30 + 242 - 272
ISSN -    978-81-8455-397-0
 

समसामयिक समस्याओं से हस्तक्षेप करता वर्तमान का साहित्य

समसामयिक समस्याओं से हस्तक्षेप करता वर्तमान का साहित्यडा0 बिनोद कुमार पाल,
इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय , पटना, बिहार।
       






 डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव की प्रस्तुत पुस्तक 28 विद्वानों के लेखकीय सहयोग से एवं पाच खण्डों में विभाजित है। जिनके उपशीर्षक परिवर्तित परिदृश्य में वर्तमान का हिन्दी साहित्य : चिन्तन चिन्ता के विविध पहलू, साहित्य में स्त्री विमर्ष : परिवर्तन के निकर्ष, सामाजिक परिवर्तन  की दिशा  तय करता वर्तमान का कथा साहित्य, परिवर्तित परिवेष में समकालीन कविता की आस्वादमूलक अर्थवत्ता : एक अनुषीलन, परिवर्तित परिदृष्य में संस्कृत साहित्य  में  चिन्तन के विविध सन्दर्भ। आदि महत्वपूर्ण हैं।
            वर्तमान समय की समस्या को उजागर करती यह पुस्तक अनेक मुददों के जवाब मांगती है ।आज का व्यकित महानगरीय परिवेश से व्यथित एवं संत्रस्त जीवन जी रहा है। और  वह अन्दर ही अन्दर अधिक पीडि़त होता जा रहा है। व्यकित में महात्वाकांक्षा का स्तर बढ़ता जा रहा है; जिससे उसके चेतना के स्रोत अवरूद्ध होते  जा रहे हैं । उसका जीवन जटिल, बिखरा एवं उजड़ा हुआ तथा कृत्रिम यंत्र की तरह निर्जीव पुर्जा सा बना अपने स्थान पर घूमता रहता है। ऐसी  ही आज के परिवारों की सिथति हो गयी है। जहाँ व्यकित अपने साँचे में ढला हुआ अपना जीवन ढोता तथा घसीटता जा रहा है। इसके साथ ही वह असंगतियों, कटुताओं और अंतर्विरोध जनित रिक्तता को लगातार झेल रहा है। जहाँ पुराने आदर्श खंडित होने लगे हैं, वहीं अनेक बाधाओं के साथ भी नये मूल्यों की तलाश भी जारी है। हालाकि इन परिसिथतियों के पीछे बहुत सटीक कारण तो नहीं देखने को मिलते हैं लेकिन औधोगीकरण, भूमण्डलीकरण तथा उदारीकरण की नीति ने आर्थिक विषमता को जन्म दिया है जिससे समाज की मान्यताओं, जीवन एवं सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन आने लगा है। परिवेशों का बिखराव, व्यकित का आत्मकेनिद्रत बनना, आपसी रिश्तों में अलगाव, घुटन आदि का पनपना शहरों में ही नहीं गाँव भी इसकी असर से अछूते नहीं रह पाए हैं। आज का व्यकित शहरी जीवन के विभिन्न दबावों से आक्रान्त होकर रह गया है। राजनैतिक दबाव, यांत्रिक जीवन की यंत्रणाओं के दबाव, स्वच्छंदता प्रिय सिथति के दबाव ने नगरीय व्यकितत्व को न केवल बाहर से अपितु भीतर से भी तोड़ डाला है, लगभग हर व्यकित का आज का जीवन अस्त व्यस्तताओं से भरा हुआ है।
              पुस्तक में साहित्य के समक्ष और भी अनेक चुनौतियाँ और उददेश्य हैं। वह यह है कि तथाकथित सभ्यता, संस्कृति के पैरोकार एवं पूंजी के मालिकों की ऐसी आजादी तथा लगातार हार रहे दलित, शोषित ,मजदूरों के आन्दोलनों से क्या आम लोगों के मन-मसितष्क में कोर्इ परिवर्तन या हालत खस्ता जैसी कोर्इ बात महसूस हो रही हैं। उनके प्रति संवेदनशीलता प्रकट करने के साथ ही आम लोगों को जिन्दगी की जरूरतों व हकों को दिलाने का कार्य आज के साहित्य का उददेश्य होना चाहिए।          
               इन्हीं व्यापक दृषिटकोणों को लेकर प्रस्तुत पुस्तक समकालीन परिवेश की ज्वलंत समस्याओं को लेकर केनिद्रत है। एक सम्पादक के रूप में डा. वीरेन्द्र सिंह यादव का यह सदैव प्रयास रहा है कि समाज में घटित होने वाली समस्याओं को पैनी नजर से अवलोकित किया जाये। प्रस्तुत  सम्पादित पुस्तक  देश के विभिन्न प्रान्तों के उच्च शिक्षा जगत से सम्बद्ध प्राध्यापकों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों तथा  साहित्यकारों के सार्थक चिन्तन, मनन एवं गम्भीर विचारों को रखा गया है। बदलते परिदृश्य में इसी को मददेनजर रखते हुये साहित्य की समकालीन समस्याओं से सम्बनिधत प्रमुख चर्चित विधाओं को विषयपरकता एवं वस्तुपरकता को दृषिटगत रखते हुए इस सम्पादित पुस्तक में  प्रकाश डाला गया है। साहित्य में समकालीन मुददों पर यचि रखने वाले सुविस पाठकों कों प्रस्तुत पुस्तक अवश्य पसंद आएगी।

पुस्तक -   समसामयिक समस्याओं से हस्तक्षेप करता वर्तमान का साहित्य
लेखक -   डा. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक -   ओमेगा पबिलकेशन्स 43734 बी., जी. 4, जे.
    एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागनज , नर्इ दिल्ली
मूल्य -    600.00
पेज -     14 + 208 - 222
ISSN -    978-81-8455-373-4

 

वैशिवक आइने में आतंकवाद : वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की चुनौतियां

वैशिवक आइने में आतंकवाद : वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की चुनौतियां
डा0 प्रबल प्रताप सिंह तोमर
विभागाध्यक्ष वाणिज्य
       आर0 एस0 जी0 यू0 पी0 जी0 कालेज पुखरायां, कानपुर देहात          
        आतंकवाद एक ऐसा वाद है जिसके द्वारा लोगों के अंदर भय, हिंसा, आगजनी, विस्फोट, हाइजैक, अपहरण, साम्प्रदायिकता का पुट, क्षेत्रवाद आदि का समिमश्रण देखने को मिलता है। इसलिए इतना तो कहा ही जा सकता है कि आतंकवाद राजनीतिक उददेश्य से प्रेरित तीव्र हिंसा का प्रयोग है जिसके द्वारा व्यकितयों की, समाज की, देश की सम्पतित एवं जान को क्षति पहुंचती है। वह व्यकित या संगठन जो किसी लक्ष्य पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए हिंसक तरीकों का प्रयोग करके भय का वातावरण पैदा करता है, आतंकवादी कहलाता है। कहा जा सकता है कि राजनैतिक उददेश्यों की पूर्ति के लिए समाज के भीतर भय का वातावरण पैदा करने के इरादे से उठाया गया कदम अथवा हिंसक व्यवहार ही आतंकवाद कहलाता है। आतंकवाद पर अपनी तरह से समस्या को उठाकर इसका समाधान इस पुस्तक के माध्यम से किया गया है।
      संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव की यह पुस्तक पाच खण्डों में -आतंकवाद का वैशिवक परिदृश्य : स्वरूप एवं समस्याएंभारतीय परिदृश्य में आतंकवाद : चुनौतिया एवं समाधान की दिशाएं,आंतरिक] सुरक्षा के समक्ष प्रमुख चुनौती :आतंकवाद एवं नक्सलवाद के विशेष सन्दर्भ में,आतंकवाद के उन्मूलन में  साहित्य  एवं संगीत की भूमिका ,बदलते परिदृश्य में आतंकवाद के विविध मुखौटे नामक शीर्षकों में विभाजित है। इस पुस्तक में 39 विद्वानों के लेखों के माध्यम से आतंकवाद के  विभिन्न मिथकों को नये सिरे से परिभाषित किया गया है।
       डा0 वीरेन्द्र यादव का सम्पादकीय के माध्यम से कहना है कि यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है कि आतंक का अर्थ सदैव किसी की जान ले लेना, किसी को बम धमाकों से, हथियारों के द्वारा डराना ही नहीं होता वरन अपने किसी भी प्रकार के कृत्य से समाज में, व्यकित में भय का वातावरण पैदा कर देना भी आतंक की श्रेणी में आता है। आतंकवादी अपने आपमें निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु सभी प्रकार के हथकंडों का इस्तेमाल करते देखे गये हैं,इनमें बर्बर से बर्बर कदमों को भी समाहित किया जा सकता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आतंकवाद कोर्इ विचारधारा अथवा सिद्धान्त नहीं वरन एक प्रकि्रया अथवा एक उपकरण है जिसका प्रयोग कर कोर्इ भी राज्य, राजनीतिक संगठन, स्वतन्त्रावादी समूह, अलगाववादी संगठन, जातीय, धार्मिक, उन्मादी अपने उददेश्य को प्राप्त करते हैं।
                   इस पुस्तक के माध्यम से देश में लगातार बढ़ती आतंकी घटनाओं को देखते हुए आतंकवाद के विरुद्ध व्यापक रूप से जनआन्दोलन छेड़ने के साथ कड़े से कड़े कदम उठाये जाने बात कही गयी है। इसके माध्यम से यह भी अनुरोध करने की कोशिश की गयी है कि अपनी सम्पूर्ण एकजुटता के द्वारा ऐसे लोगों को चिनिहत करके बाहर लाना होगा जो किसी भी रूप में आतंकवादियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। इनके विरुद्ध कठोर से कठारे कार्यवाही के द्वारा लोगों के भीतर इस संदेश को पहुंचाना होगा कि सरकार आतंकवाद और आतंकवादियों के विरुद्ध है तथा इन लोगों को किसी भी रूप में बख्शा नहीं जायेगा। डा0वीरेन्द्र यादव अनितम निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि दरअसल ऐसा भी नहीं है कि आतंकवाद से निपटा नहीं जा सकता हो। भले ही आतंकवादियों ने अब नर्इ-नर्इ तकनीकी का, नये-नये औजारों का, विकसित हथियारों का प्रयोग करना शुरू कर दिया हो किन्तु यह भी सत्य है कि किसी भी देश के पास भी ये सारी अत्याधुनिक तकनीक मौजूद रहती हैं, आवश्यकता तो होती है बस आत्मनिर्णय लेने की, बुलंद हौसलों की। इसका उदाहरण देखना हो तो आसानी से अमेरिका को देखा जा सकता है। जहां 911 के हमले के बाद से किसी प्रकार की बड़ी आतंकी घटना नहीं हुर्इ है। अमेरिका सरकार ने अपने कानूनों को अत्यधिक सख्त कर रखा है और इस पर वह किसी हीलाहवाली के कार्यवाही भी करता दिखता है। उसने अपने देश के आर्इ0 टी0 कानून में व्यापक स्तर का बदलाव करके स्वयं को आतंकवाद के विरुद्ध तैयार कर रखा है।      
          विश्व में आतंक का स्तर बहुत ही हार्इटैक हो चुका है। अमेरिका में हुआ हमला और इसके अलावा अन्य दूसरे पशिचमी देशों में बम धमाकों की घटनाओं ने साफ तौर पर बता दिया है कि अब आतंकवादी सिर्फ छोटे-मोटे हथियारों की मदद नहीं लेते हैं और न ही उनके पास आज सिर्फ भाड़े के व्यकित हैं,वे तो अब प्रोफेशनल लोगों की,इंजीनियर्स की मदद लेते हैं और बदले में उनको बहुत बड़ी धनराशि अदा भी की जाती है। इस बात के सबूत हमें मुम्बर्इ के 2611 के हमले, गुजरात के बम धमाकों के बाद से आसानी से मिले हैं।  आतंकवाद का हौसला और इन आतंकवादियों की कारस्तानियां इस हद तक बढ़ चुकी हैं कि अब ये खुलेआम सरकार को चुनौती सी देते दिखते हैं। भारतीय संसद पर हमला इसी बात का जीता-जागता उदाहरण है। देश के सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्र में घुसकर हमला करने की नीति किसी भी रूप में कम नहीं कही जा सकती है।
         आतंकवाद अपने आपमें निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु सभी प्रकार के हथकंडों का इस्तेमाल करते देखे गये हैं, इनमें बर्बर से बर्बर कदमों को भी समाहित किया जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से डा0 वीरेन्द्र यादव ने विश्व में फैले आतंकवाद के जाल को रेखांकित कर इसका समाधान भी सुझाने की सफल कोशिश की है। जागरूक पाठकों को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
पुस्तक का नाम- वैशिवक आइने में आतंकवाद : वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की चुनौतियां
संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-18+291-309
ISSN.978.81.8455.320.8
संस्करण-प्रथम.2011,मूल्य-795.00
ओमेगा पबिलकेशन्स,4378/एळ4एजे.एम.डी.हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002