मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

प्रसाद का नाट्य गौरव स्कन्द गुप्त-- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव



प्रसाद का नाट्य गौरव - स्कन्दगुप्त
डॉ. नीरज द्विवेदी
पुस्तक - प्रसाद का नाट्य गौरव स्कन्द गुप्त
लेखक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - ओमेगा पब्लिकेशन्स 4373/4 बी., जी. 4, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य - 300.00

पेज - 8 + 109 = 117
ISBN - 978-81-8455-275-1

भारतीय संस्कृति जिसमें त्याग का गौरव है, विजय की शक्ति है, करूणा की तरलता है और क्षमा की अनुकम्पा है। इसमें वह शक्ति है कि यह पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध को रोक सकती है। जयशंकर प्रसाद ने लगभग अपने सभी नाटकों में इसी संस्कृति की एक नवीन दिशा एवं आलोक प्रदान किया है। जो हमारे लिए अनुकरणीय है।
आज के व्यस्ततम व भौतिकवादी आपाधापी के इस युग में फँसे लोगों के पास चिन्तन व मनन के लिए वक्त नहीं है। परन्तु इन विषम स्थितियों में भी निरन्तर परिश्रम और राष्ट्र की प्रगतिशीलता के प्रति प्रतिबद्ध सम्पादक द्वय डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव व डॉ. कमलेश सिंह समय-समय पर अपने शिक्षा एवं ज्ञान के द्वारा अनवरत लोगों को जागरूक करते रहते हैं। जहाँ तक राष्ट्र के गौरव एवं कीर्तिमान की बात है तो उसके प्रति भी डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव एवं डॉ. कमलेश सिंह में प्रबल आस्था देखने को मिलती है। इसी आस्था एवं विश्वास की कड़ी में इनके द्वारा सम्पादिक पुस्तक प्रसाद का नाट्य गौरव: स्कंद गुप्त में युवा लेखकों ने अपने अठारह लेखों के माध्यम से स्कन्दगुप्त नाटक के भिन्न-भिन्न कोणों से विवेचना की है। महत्वपूर्ण यह नहीं हैं कि इस संकलन के सभी लेखक युवा हैं बल्कि यह है कि स्कन्दगुप्त जैसे नाटक पर इतनी दुर्लभ सामग्री की इतनी नवीन व्याख्या इतनी पैनी नजरों से शायद ही कहीं देखने को मिले, क्योंकि युवा लेखकों से इन स्कन्द गुप्त नाटक की आलोचना का कोई क्षेत्र छूट नहीं पाया है।
जयशंकर प्रसाद ने स्वयं अपनी इतिहासप्रियता के विषय में लिखा है - हमारी गिरी दशा को उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त और कोई भी आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं इसमें हमें सन्देह है। इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के प्रकाशित अंश में उसे उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बचाने का बहुत प्रयत्न किया है। प्रसाद के नाटकों की विशिष्टता यह है कि उसमें पूर्वी नाट्य परम्परा और पश्चिमी नाट्य का मिश्रण ही नहीं अपितु स्वयं उनकी मौलिकता का भी दिग्दर्शन है। इसके साथ ही भारतीय अतीत की गौरवमयी परम्परा इतिहास के पृष्ठों से राष्ट्रीय चरित्र को उभारने वाले व्यक्तियों की पहचान और पौराणिक कथाओं से सन्दर्भ लेकर समकालीन सामाजिक स्थितियों को प्रकाश में लाना, इनके नाटकों का कथन की और उद्देश्य की दृष्टि से भी एक अलग महत्व है। हमें आशा है कि युवा आलोचकों का यह प्रयास नाट्य आलोचना के क्षेत्र में नये आयामों की तलाश करता दिखाई देता है। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं कि साहित्य तथा संस्कृति के मठी आचार्यों के तालाब में जलकुम्भी की तरह छा जाना किसे नहीं खटकता है। ये जल कुम्भियां ऐसे ही प्रयासों से हटायी जा सकती हैं।
जयशंकर प्रसाद में (विशेषकर स्कन्दगुप्त) में रूचि रखने वाले पाठकों, शोध छात्रों, प्रतियोगी परीक्षाओं (आई. ए. एस., पी. सी. एस.) को देने वाले युवाओं के लिये यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी। ऐसी हमारी मान्यता है।








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