मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

नई सहस्त्राब्दी का स्त्री-विमर्ष: साहित्यिक अवधारणा एवं यथार्थ -- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव





नई सहस्त्राब्दी का स्त्री-विमर्श: मिथक एवं यथार्थ डॉ हेमा देवरानी

पुस्तक - नई सहस्त्राब्दी का स्त्री-विमर्ष: साहित्यिक अवधारणा एवं यथार्थ

सम्पादक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

प्रकाशक - राधा पब्लिकेशन, 4231/1 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली

मूल्य: रू. 495.00

पृष्ठ : 22+224=246

ISBN -- 978-81-7487-659-1

स्त्री मुक्ति आन्दोलन को आगे बढ़ाने वालीं तथा नारी जीवन को जीवन जीने का नया स्वर प्रदान करने वाली प्रगतिशील नारियों को समर्पित पुस्तक ‘नई सहस्त्राब्दी का स्त्री-विमर्ष: साहित्यिक अवधारणा एवं यथार्थ’ स्त्री-लेखन से जुड़े और स्त्री-चिन्तन से सम्बन्धित विविध पहलुओं पर विस्तार से चर्चा के नये आयाम स्थापित करता है। डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव के कुशल सम्पादन में कुल 38 लेखों में स्त्री-विमर्श के सकारात्मक पहलुओं पर शोधपरक दृष्टि आरोपित कर उसका साहित्यिक मूल्यांकन किया गया है। स्त्री लेखन और उसकी अस्मिता, स्त्री लेखन के चिन्तनपरक सरोकारों के अतिरिक्त कृतित्व के आधार पर नारी चेतना के विविध आयामों को विस्तृत दृष्टिकोण प्रदान किया गया है। स्त्री-विमर्श के नाम पर स्त्री के स्वतन्त्र दृष्टिकोण को उभारने का प्रयास इस पुस्तक के द्वारा होता आसानी से दिखता है। नारी चेतना का स्वरूप हिन्दी साहित्य के आविर्भाव से अद्यतन उपस्थित रहा है और नारी का संघर्ष भी इसी समय के साथ-साथ चलता रहा है। स्वामी विवेकानन्द का कथन कि स्त्रियों की अवस्था में सुधार न होने तक विश्व के कल्याण का कोई मार्ग नहीं। किसी भी पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना नितान्त असम्भव है, समाज में स्त्री को पुरुष के बराबर का स्थान प्रदान करता है। इस बराबरी के स्थान का पर्याप्त ‘स्पेस’ डॉ0 वीरेन्द्र निर्मित करते नजर आये हैं। महिलाओं की भूमिका को साहित्य के विविध प्रतिरूपों में दर्शाते हुए उसके शोषण-संघर्ष को तो रेखांकित किया ही है साथ ही स्त्री की विकासपरक मनोवृत्ति का भी चित्रण किया है। साहित्यिक धरातल पर स्त्री-विमर्श के नाम पर कुछ कालजयी रचनाओं और रचनाकारों के द्वारा स्त्री-चेतना की सशक्तता को भी स्थान प्राप्त हुआ है। मीराबाई को भारतीय स्त्री-विमर्श संदर्भ में अग्रणी स्थान प्राप्त है जिसने तत्कालीन अभिजात्य वर्ग की, पुरुषवाद की सामंती सोच से सीधे-सीधे विद्रोह कर संघर्ष किया था वहीं दूसरी ओर स्वतन्त्रता के आसपास की महिला कथाकारों में कृष्णा सोबती का उग्र बुर्जुआ लेखन स्त्री की स्वतन्त्र छवि का पोषण करता भरतीय संदर्भों में अपने आप में क्रान्तिकारी कदम था। स्त्री-विमर्श के ऐसे स्तम्भों को प्रमुखता के साथ स्थान देना सम्पादक का स्त्री-विमर्श और स्त्री-चिन्तन के प्रति सकारात्मकता को ही सिद्ध करता है। स्त्री को हाशिए पर हमेशा से रखा जाता रहा है और उसकी इस स्थिति को साहित्य में स्थान भी प्राप्त होता रहा है किन्तु 21वीं सदी के साहित्य जगत की विस्मयकारी घटना हाशिए की औरत सेक्सवर्कर की आत्मकथा का आना रहा है। इससे पहले अपने-अपने क्षेत्र के स्वनामधन्य लोगों को आत्मकथा का लेखन अथवा स्त्रियों द्वारा आत्मकथा लिखना उनके स्वतन्त्र चिन्तन को परिभाषित करता रहा है किन्तु साहित्य के तथा समाज के हाशिये पर खड़ी एक स्त्री की आत्मकथा को तथा एक अन्य दलित स्त्री के शोषण-संघर्ष को इस पुस्तक में स्थान मिलना स्त्री के प्रति सकारात्मक तथा विस्तारपरक सोच का प्रतीक है। स्त्री चेतना के साहित्यिक स्वरूप का विस्तृत फलक होने के बाद भी स्त्री-विमर्श के सम्बन्धों में नया व्याकरण तलाशा जा रहा है। स्त्री-विमर्श की अस्मिता के यक्ष प्रश्नों से दो-चार होते हुए, इस पुस्तक की पठन यात्रा से गुजरते हुए बीच-बीच में कहीं एहसास होता है कि स्त्री को अब तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।

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