बुधवार, 20 अप्रैल 2011

इक्कीसवीं सदी का भारत - मुद्दे , विकल्प और नीतियाँ-- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

इक्कीसवीं सदी का भारत - मुद्दे ,विकल्प और नीतियाँ
डॉ. परमात्मा शरण गुप्ता
पुस्तक - इक्कीसवीं सदी का भारत - मुद्दे , विकल्प और नीतियाँ
सम्पादक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - ओमेगा पब्लिकेशन, 4231/1 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य: रू.995 .00
पृष्ठ : 18+426=444
ISBN: 978.81.8455.204.1

प्रत्येक कालखण्ड अपने आपमें कुछ यक्षप्रश्न समेटकर हम सभी के सामने आता है। ऐसा ही कुछ 21वीं सदी के द्वारा भी हो रहा है। नई सदी का आगमन एक ओर हम सभी को रोमांचित कर रहा है वहीं दूसरी ओर एक प्रकार की असमंजस वाली स्थिति में भी खड़ा करता है। तमाम सारे मुद्दे, विषय, समस्याएँ 21वीं सदी के आगमन पर उसके स्वागत में खड़े मिले और इसके विकल्प को, नीतियों को, समाधान को तलाशन का दायित्व 21वीं सदी हमको सौंपती दिखती है। अपने इसी दायित्वबोध को पूर्णता का एहसास कराने के लिए डॉ वीरेन्द्र सिंह यादव प्रयासरत् दिखाई देते हैं और 21वीं सदी में प्रमुखता से सामने आते विषयों पर सम्पादित दृष्टिकोण को समग्रता प्रदान करते हैं।
‘इक्कीसवीं सदी का भारत - मुद्दे विकल्प और नीतियाँ’ जैसे दुरुह और विस्तृत विषय पर संयमित ढंग से सम्पादकीय कलम चलाते हुए डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव ने 69 लेखों का संग्रह कर प्रत्येक विषय को टटोलने का सराहनीय प्रयास किया है। 21वीं सदी की आधुनिक सोच के प्रति अपनी सोच को आधुनिकता का अमली जामा पहनाने के साथ ही विषय की गम्भाीरता को विस्मृत नहीं किया गया है। देश को केन्द्रबिन्दु मानकर और 21वीं सदी को एक परिस्थिति स्वीकार कर उसका समग्र चिन्तन पुस्तकाकार रूप में सामने आता है जो सतत विकास, भारतीय अर्थव्यवस्था और भूमण्डलीकरण, वैष्वीकरण, ग्रामीण विकास, कृशि के आध्ाुनिकीकरण की चर्चा कर राष्ट्र की औद्योगिक और आर्थिक नीति के प्रति सकारात्मक सोच का परिदृश्य स्पष्ट किया है। शिक्षा क्षेत्र से जुड़े विविध बिन्दुओं की विकासपरक अवस्था के साथ ही समलैंगिकता, एड्स, वेष्यावृत्ति, साम्प्रदायिकता, सूखा, बालश्रम, कन्याभ्रूण हत्या, खाद्यान्न संकट जैसी शिक्षित एवं उननत समज की समस्याओं को शमिल कर उनके निदानात्मक स्वरूप को सहेजा है।
समीक्ष्य पुस्तक की विशेषता यह कही जायेगी कि विषयों का व्यापक विस्तार भी कहीं भटकाव की स्थिति पैदा नहीं करता है। राष्ट्रीय स्तर के विकासपरक और समस्यापरक मुद्दों पर सम्पादकीय दृष्टिकोण थोपा हुआ सा प्रतीत न होकर उनका विश्लेषणात्मक स्वरूप प्रदर्शित होता नजर आता है। यही कारण है कि यदि चुनौतयाँ सामने दिखतीं हैं तो 21वीं सदी में भी चुनौतियों का गाँधीवादी समाधान नजर आता है। भाशाई संकट, घरेलू हिंसा, नैतिक मूल्यों का हृास, सामाजिक परिवर्तन, भारतीय कला आदि विषय जो सीधे-सीधे आम आदमी से जुड़े होते हैं को भी सहेजने का सुखद प्रयास दिखाई देता है।
यह बात और है कि 21वीं सदी में समाज की बहुत सी वर्जनाओं को तोड़ डाला गया है; सामाजिक परिवर्तन के दौर ने पारिवारिक विघटन की स्थिति को पैदा कर दिया है; विकेन्द्रीकरण के चलते समग्रतावादी संरचनाएँ टूट रहीं हैं; विकास के समकालीन मॉडल के साथ विकृतियाँ भी अपना ‘रोल’ निभा रहीं हैं पर इस पुस्तक के आलेख और सम्पादकीय दृष्टि दर्शाती है कि यक्षप्रश्नों का उत्तर देने के लिए प्रत्येक कालखण्ड में एक युद्धिष्ठिर पैदा होता है। मुद्दे विकल्प और नीतियों के रूप में सामने दिखते प्रयासों के बाद यक्षप्रश्नों के लिए हम समीक्ष्य पुस्तक के सम्पादक डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव से युद्धिष्ठिर की भूमिका जैसी आशा तो कर ही सकते हैं।




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