मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

इक्कीसवीं सदी का पर्यावरण आन्दोलन चिन्तन के विविध आयाम--डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव

पर्यावरण आन्दोलन के विविध आयाम
डॉ आनन्द कुमार खरे
पुस्तक - इक्कीसवीं सदी का पर्यावरण आन्दोलन चिन्तन के विविध आयाम
लेखक - डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - ओमेगा पब्लिकेशन्स 4373/4 बी., जी. 4, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य - 725.00
पेज - 22 + 317 = 339
ISBN - 978-81-8455-242-3
पर्यावरण हमारी सम्पूर्ण मानवता के जीवन का आधार स्तम्भ है। परन्तु उपभोक्तावादी संस्कृति, जनसंख्या विस्फोट तथा निर्वनीकरण के कारण इसका ढाँचा असन्तुलित होता जा रहा है। अपनी भौतिकतावादी ध्वनि में रमा व्यक्ति यह सब भूल गया है कि प्रकृति की भी अपनी सीमायें एवं क्षमताएं हुआ करती हैं। लेकिन मनुष्य ने इन चिंताओं से दूर रहकर प्रकृति का जरूरत से ज्यादा दोहन एवं शोषण किया है। जिसके परिणामस्वरूप सूखा, बाढ़, महामारी, भूकम्प, भूस्खलन ओजोन परत का नष्ट होना, ग्लोबल वार्मिंग, अकाल जैसी अनगिनत प्राकृतिक आपदाएं नित्य विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। यही कारण है कि आज पर्यावरण की समस्या की प्रतिध्वनि भूमण्डलीय समस्या के रूप में हम सबके साथ विद्यमान हो रही है। इन्हीं सब प्रस्तुत सरोकारों को विमर्श का रूप देने के लिए समसामयिक समस्याओं के प्रति जागरूक एवं पर्यावरण समस्या को शोधपरक से प्रस्तुत करने वाले डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव की पुस्तक इक्कीसवीं सदी का पर्यावरण आन्दोलन: चिंतन के विविध आयाम पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक सकारात्मक प्रयास के रूप् में चर्चित हुई है। देश के विभिन्न प्रान्तों से तैंतीस पर्यावरणविदों एवं शिक्षा जगत से सम्बद्ध प्राध्यापकों के द्वारा आठ खण्डों में विभाजित पर्यावरण की अवधारणा एवं विकास प्रक्रिया, पर्यावरण संरक्षण और संवैधानिक प्रावधान, साहित्य में पर्यावरण चिंतन के विविध संदर्भ, पर्यावरण संरक्षण में प्राकृतिक सम्पदा का योगदान, पर्यावरण प्रदूषण एवं जल संरक्षण के विविध सरोकार, पर्यावरण प्रदूषण एवं पर्यावरण शिक्षा का मनोविज्ञान, जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी खतरे, इक्कीसवीं सदी का पर्यावरण: चिन्तन के विविध सन्दर्भ नामक उपशीषर्कों के द्वारा पर्यावरण की चिन्ता के विविध पक्षों पर गम्भीरता से विचार-विमर्श किया गया है। लगभग सभी लेखकों का मानना है कि भले ही हम जी बहलाने के लिए पर्यावरण प्रदूषण एवं धरती के बढ़ते तापमान के लिए पश्चिमी देशों (विशेष रूप से अमेरिका को) को दोषी ठहरायें। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम बेकसूर हैं। भले ही हम पृथ्वी पूजा एवं प्रकृति पूजा के ढेर सारे उदाहरण दें। परन्तु कहीं-न-कहीं इस दिशा में हम भी सीधे न ही सही पर दोषी हैं जरूर। यदि वास्तव में प्रकृति के इस संतुलन को ठीक करना है इसके साथ ही सम्पूर्ण मानवता को मृत्यु की ओर से रोकने को बचाना है तो पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक नागरिक को जागरूक होना पड़ेगा। प्रस्तुत पुस्तक पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सार्वभौमिक सोच एवं जागरूकता का परिचय कराती है। जो इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती को ब्रेक लगाती नजर आती है।

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