शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

महिला कथाकारों के उपन्यासों में समय ,समाज और संवेदना



महिला कथाकारों के उपन्यासों में समय ,समाज और संवेदना
डा0 कमलेश सिंह, 6, कटरा रोड,इलाहाबाद - 211002
पुस्तक
का नाम- महिला कथाकारों के उपन्यासों में समय ,समाज और संवेदना
संपादक
- डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव
प्ैठछ
.978.93.81630.05.1
संस्करण
-प्रथम.2011,मूल्य-895.00
पैसिफिक
पब्लिकेशन्स-एन.187 शिवाजी चैक, सादतपुर एक्सटेंशन,दिल्ली-110094
नई
पीढ़ी के उदीयमान युवा लेखकों में लब्ध प्रतिष्ठ डा0 वीरेन्द्र की इस प्रस्तुत पुस्तक में 14 अध्यायों एवं दो खण्डों में विभाजित है-स्त्री लेखन के सैद्धान्तिक पक्ष एवं समीक्षा खण्ड। इन दोनों के अन्तर्गत प्रथम के तहत स्त्री लेखन के इतिहास को दर्शाते हुए इस पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य तक प्रकाश डाला गया है। दूसरे खण्ड में इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक की महिला कथाकारों की चर्चित औपन्यासिक कृतियाँ का विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया गया है।
डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव द्वारा सम्पादित इस पुस्तक में स्त्री-लेखन का एक और महŸवपूर्ण उद्देश्य स्त्री की विभिन्न भूमिकाओं का मानव-समाज को परिचय देना है, जीवन के उन अँधेरे कोनों पर प्रकाश डालना है जिसकी पीड़ा स्त्रियों ने सदियों से झेली है। सम्पादकीय में मानना है कि स्त्री अपनी मानवीय गरिमा और अधिकार को समझकर संरचनात्मक, सांस्कृतिक तथा मानवीय दृष्टिकोण के मूल Ÿवों का विश्लेषण करे, अपने लेखन में उन तमाम स्त्रियों को शक्ति दे, जो संघर्षरत हैं तथा जो स्त्री-समाज के विकास में सक्रिय हैं, वे जो समाज की नजरों से दूर, कहीं किसी कोने में सुबक रही हैं, जिनके पास मानवीय गरिमा के नाम पर केवल अपना शरीर है, उन्हें जीने की प्रेरणा दे और साहित्य के विकास के नए दृष्टिकोण तथा वैकल्पिक अवधारणाओं को विकसित करे।
       स्बसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रस्तुत पुस्तक की इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक की महिला उपन्यासकारों ने अपने परिवेश से प्रभावित होकर अपनी औपन्यासिक कृतियों में उन विचारों को प्रतिस्थापित करना शुरू किया है जो उन्नयन की ओर ले जा सकते हैं। उनकी रचनाओं में वे विचार ही प्रबलता के साथ प्रविष्ट होते जा रहे हैं जो विकास के रास्ते पर ले चलने वाले होते हैं। अर्थाभाव के कारण समाज में महिलाओं को वेश्या, कालगर्ल, चरित्रहीन, रखैल, भ्रष्टाचारी आदि मजबूरन बनना पड़ता है। इसलिए अधिकतर महिला कथाकारों ने अपने उपन्यास लेखन में आर्थिक समस्या के समाधान हेतु नारी की आत्मनिर्भरता पर विशेष बल दिया है। स्वावलंबन और आर्थिक निर्भरता नारी को स्वतंत्र अस्मिता और प्यार, सम्मान आदि देकर नारी विकास हेतु नई दिशा देने में एक सक्षम पक्ष है। प्रस्तुत इक्कीसवीं सदी के उपन्यासों में समय, संवेदना एवं समाज की प्रस्तुति अपने युग की माँग के मुताबिक ही माननी होगी जिसकी पूर्ति का प्रयास अनेक लेखिकाओं में नजर आता है। ये उपन्यास स्थापित परम्परागत व्यवस्था के दरवाजे पर प्रतिरोध की दस्तक देते हैं और विकास के अभियान में अवरोध बने हुए समाज के पारंपरिक ढाँचे को तोड़ने की हिमायत करते हैं इसलिए कि विकास का रास्ता प्रशस्त हो सके। कहना आवश्यक नहीं कि ये वे उपन्यास हैं जो विकासोन्मुख विचारों की प्रखर पहल करते हैं।
           इस पुस्तक में कुछेक ऐसे उपन्यास है जिनमें नारी जीवन का यथार्थ भी है और है-व्यवस्था का विरोध, लोक की पीड़ा, शोषण की अनन्त कथा एवं नारी के संघर्ष एवं वर्ग चेतना का उद्घोष भी देखने को मिलता है इन सभी महिला कथाकारों के उपन्यासों में पुरूष की मानसिकता पर उसकी व्यवस्था के खोखलेपन के यथार्थ पर करारी चोट की गयी है। जिनमें प्रमुख विषय एवं विचार निम्न रूप में उभर कर आये हैं ये कहीं परिवर्तनोन्मुखी है तो कहीं इतिहासोन्मुखी, तो कहीं-कहीं राष्ट्रोन्मुखी हैं तो कहीं ज्ञानविज्ञानोन्मुखी, कहीं चेतना उन्मुखीं हैं तो कहीं उपदेशोन्मुखी और कहीं-कहीं विद्रोहोन्मुखी हैं तो कह-कहीं वैश्विकोन्मुखी होकर तत्कालीन समय की सटीक व्याख्या करते नजर आते हैं
            प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक में देश भर के विद्वान प्राध्यापकों, बुद्धिजीवियों, साहित्य मनीषियों के विचार रखे गए हैं जिन्होंने उपन्यास जैसे समसामयिक एवं अति महत्वपूर्ण ज्वलंत विषय पर तार्किक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से चिन्तन-मनन कर अपने विचार रखे है कुल मिलाकर लेखनी के धनी डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव द्वारा सम्पादित इस पुस्तक में समसामयिक ज्वलंत उपन्यासों को बहुत व्यापकता के साथ हमारे समक्ष रखा है और एक नई समझ तथा नई बहस को जन्म देती उच्चकोटि की विषय वस्तु की उपलब्धता के लिए महत्वपूर्ण है। यह संख्या पाठकों के लिए, शोध छात्रों के लिए अति उपयोगी है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें