शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर औपन्यासिक दस्तक


          इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर औपन्यासिक दस्तक
           डा0 नीना, शर्मा 'हरेश-व्याख्याता हिन्दी, आनन्द आर्टस कालेज, गुजरात (गुजरात)
          साहित्य के कुशल शिल्पी डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव द्वारा संपादित तेरह अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में 21वीं सदी के प्रथम दशक के चर्चित तेरह उपन्यासों को लिया गया है। प्रस्तुत काल खण्ड के उपन्यासों में क्या नहीं है-जो भारत में नही है ? आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य की यदि हम बात करें तो इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार का माहौल इकदम बदला सा प्रतीत हो रहा है। विदेशी ऋण के मकड़जाल में अपनी आर्थिक सम्प्रभुता को लगभग खो चुका, हमारा  भारत उन ऋणदाताओं के इशारों पर नाचता-थिरकता, देश की साधारण जनता को उनकी भावी सुख समृद्धि के सपने दिखाता, उसे ठगता, गुमराह करता, जातिवादी विष और पृथकतावाद की चुनौतियाँ, क्षेत्रीय दुराग्रह, हजार बाँहों वाला भ्रष्टाचार, अपराध और अपराधियों की राजनीति से लेकर समाज तक फैला एक समानान्तर तन्त्र, चमत्कारी बाबाओं का हुजूम, अपसंस्कृति की चकाचौंध और तिलस्म में खोया और डूबा, नहाया समाज का मध्य वर्ग और ऊपरी तबका, दिशाहीन युवा पीढ़ी, जिसके पास कोर्इ गन्तव्य नहीं, मीडिया में लगातार चल रहा स्त्री देह का व्यापार और उसमें आजादी के आत्मछल या गुलामी के सुख को भोगती स्त्री की स्वैचिछक शिरकत तथा साम्प्रदायिक धर्मोन्माद की हाहाकारी गूँजें, फांसीवादी धार्मिक जुनून, एक अन्धी-अंधेरी सुरंग की यात्रा, जिसका कोर्इ अन्त नहीं, अति सुखवाद भोगवाद की पाशिवक हवस। यही नहीं राष्ट्रीय आन्दोलन की स्मृतियों, परम्परा की रूढि़याँ और क्रांतिकारी विरासतें, विचारधाराओं के ठहराव और अंतर्विरोध, सामंती समाज का क्षरण और विनाश, वर्ण और जातिपरक व्यवस्था की असंगतियाँ, लोकतांत्रिक ढ़ाँचे का लोक विरोधी चेहरा और चरित्र, हिन्दू-मुसिलम सम्बन्ध, धार्मिक अतिवादों के घातक टकराव और हिंसक मुठभेडं़े, सत्ता-राजनीति का जनविरोधी रूप, इस समय के उपन्यासों के मुख्य सरोकार एवं चिंताएं हैं।
              प्रस्तुत पुस्तक में इक्कीसवीं सदी के  प्र्रथम दशक के उपन्यासों का विवेचन करते हुए अधिकतर समीक्षकों एवं आलोचकों के द्वारा उनके व्यावहारिक बिन्दुओं को पाथेय बनाया गया है और इन सब विद्वत  मनीषियों  ने कोशिश की है कि वर्तमान में व्याप्त समस्याओं  को सहजता से लिया जाए एवं इनके समाधानों के निहितार्थ को तार्किक एवं वैज्ञानिक पद्धति द्वारा खोजकर उन्हें पाठकों तक सम्प्रेषित किया जा सके। इसलिए सर्जक और पाठक दोनों ही इसे समझ सकते हैऔर कृति की रचना और अध्ययन के स्तर पर इसे ग्रहण भी कर सकते हैं। सभी उपन्यास अनुभूति की व्यंजना और शिल्प के गठन के स्तर पर प्रभावित करते हैं और सही मायनों में आगे लिखे जाने वाले उपन्यासों की दिशा भी तय करते हैं। इनकी महत्ता कोर्इ अपूर्व 'क्लासिकी की नहीं है वरन इसमें है कि यह अपने समय में हैं और अपने में होते हुए ये समय के पार जाने की क्षमता भी दिखाते हैं। समकालीन विमशो का शायद ही कोर्इ पक्ष हो जो इन उपन्यासों में न आ पाया हो। अपने अकेले में नहीं,वरन पूरे समुच्चय में ये उपन्यास एक बड़े विमर्श में ले जाते हैं जिसमें समकालीन भारतीय जीवन के बुनियादी प्रश्नों के साथ-साथ व्यवस्था के पाखण्ड और वैशिवक स्तर पर प्रभावी सिथतियों की भी पड़ताल की गयी है। हिन्दी में उपन्यास का परिदृश्य कितना व्यापक है और उसमें कितनी विविधता है इस परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक में प्रकाश डाला गया है।  यह पुस्तक उन उपन्यासों पर भी विमर्श करने की कोशिश  करती है जो समकालीन प्रश्नों के साथ होते हुए, अपने समय के पार जाने की कोशिश में लिखे गये है । विमर्श में जिन्हें उल्लेखनीय उपन्यास माना गया है, वे सचमुच अपनी समकालीनता और उपादेयता बनाने में सफल रहे हैं।
         प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक देश भर के विद्वान प्राध्यापकों, बुद्धिजीवियों, साहित्य मनीषियों की लेखनी का प्रतिफल है जिन्होंने उपन्यास जैसे समसामयिक  एवं अति महत्वपूर्ण ज्वलंत विषय पर तार्किक एवं वैज्ञानिक दृषिट से चिन्तन-मनन कर अपने विचार रखे हैं। इस आशा के साथ कि प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक 'नर्इ दहलीज पर औपन्यासिक दस्तक जैसे संवेदनशील विषय पर आम-जन के मध्य जिज्ञासा एवं उत्सुकता पैदा करेगी ही साथ ही उच्चकोटि की विषयवस्तु की उपलब्धता के कारण संग्रहीय भी है।

पुस्तक - इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर औपन्यासिक दस्तक
लेखक - डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
पेज -  18 + 246 - 262
प्ैठछ - 978-81-8455-377-2
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य - 695.00
प्रकाशक -ओमेगा पबिलकेशन्स 43734 बी., जी. 4, जे. एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली

 

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