शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

भारत में सामाजिक सन्दर्भों के विविध परिदृश्य

         भारत में सामाजिक सन्दर्भों के विविध परिदृश्य
मुकेश कुमार मालवीय
सहायक प्राध्यापक, विधि-विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
, वाराणसी (उत्तरप्रदेश).221005

      संम्पादक द्वय डा.वीरेन्द्रसिंह यादव, डा.विजय कुमार वर्मा के महत्वपूर्ण प्रयासों में समकालीन सामाजिक मुददों को लेकर यह पुस्तक संपादित की गयी है। प्रस्तुत पुस्तक अध्याय 22 एवं 7 उपशीर्षकों में भारतीय धर्म एवं संस्कृति के बदलते सरोकार,भारतीय परिवार एवं समाज :स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश, बहुजन समाज का स्याह यथार्थ एवं अग्रज पीढ़ी का योगदान, शैक्षिक  परिदृश्य  का समकालीन  यथार्थ : दशा एवं दिशा, भारतीय समाज में आधी दुनिया की भागीदारी, इतिहास के आर्इने में भारत : चिन्तन-चिन्ता के विविध परिदृश्य, ज्वलन्त प्रश्न एवं सुलगते सवाल में विभाजित की गयी है।
        भारत आज आतंकवाद, अलगाववाद के साथ-साथ नक्सलवादी आतंकवादी समस्या से भी जूझ रहा है। यह एक अलग तरह की समस्या है जो वामपंथी विचारधारा माओत्से तुंग के क्रांतिकारी दर्शन से अभिप्रेरित है जिसका प्रमुख लक्ष्य सामाजिक, आर्थिक न्याय पर आधारित व्यवस्था की स्थापना करना। ''माओ की इसी विचारधारा से प्रेरित होकर चारन मजूमदार एवं कनु सान्याल ने पशिचमी बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलवादी गाँव में क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरूआत की इसलिए इन्हें नक्सलवादी कहा गया। नक्सलवाद का प्रमुख कार्य एवं उíेश्य लोकतांत्रिक राजनीति का पूर्ण विरोध एवं जनक्रांति के द्वारा भूमिहीन किसानों को संगठित कर गुरिल्ला पद्धति द्वारा भूपतियों या जमींदारों के विरूद्ध खूनी संघर्ष का तरीका अपनाया है।
           नई  खोजों को जन्म देती यह पुस्तक अनेक रहस्यों का पर्दाफाश करती है। जीवन एक ऐसा शब्द है जिसके प्रति पृथ्वी के सभी जीव-जन्तुओं में एक आकर्षण रहता है। इसकी निरन्तरता बनाये रखने के लिए सभी प्रयास भी करते रहते हैं। शायद इसलिए मनुष्य ने भी एक प्राणी से ऊपर लेकर नहीं देखा जा सकता है परन्तु संस्कृति के कारण वह अपनी सिथति को थोड़ा बेहतर करने की सिथति में दिखार्इ देता है। मानव को मानव कहा से माना जाये। यदि इस पर विचार करें तो मूल्यों की व्यवस्था संवेदनशीलता, मानवीयता, सृजनात्मक, उदारता आदि ऐसे संशिलष्ट गुण हैं, जिनके आधार पर मानव को मानव कहा जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समाज का विकास बिना मूल्योन्मुख संंस्कृति के सम्भव नहीं है। वर्तमान परिदृश्य को संज्ञान में रखते हुए नवीन परिवर्तन विविध प्रक्रियाओं यथा भूमण्डलीय, निजीकरण, उदारीकरण, पाश्चात्यीकरण, आधुनिकीकरण, व भौतिकतावादी आयामों के महत्वपूर्ण बिन्दुओं को आत्मसात करने के साथ-साथ भारतीय समाज के मूल्यपूरकता को भी मूल्यांकित करने की आवश्यकता पर बल दिया है। अनेक समसामयिक बिन्दुओं में परिवर्तन की विविध प्रक्रियाआें ने समाज में परिवार के सदस्यों के बीच द्वन्द्वात्मक सिथति का जन्म दिया है। अत: आज का व्यकित इन परिवर्तनों के प्रभाव से प्रभावित होता दिखार्इ पड़ रहा है। क्योंकि परम्परागत मूल्यों को समयानुकूल पोषित नहीं किया गया है। फलत: द्वन्द्वात्मक सिथति को कारण आज का मानव किंकर्तव्यविमूढ़ की सिथति में अपने आपको पाता है अर्थात सामाजिक परिवर्तन कहीं ज्यादा प्रबल है। इन परम्परागत मूल्यों से। ऐसी सिथति समाज के समक्ष उपसिथत है, यह सिथति अति संवेदनशील व विचारात्मक है। इसके विषाक्त प्रभाव को किस विधा से समाप्त किया जाये इसकी खोज एक मनन, चिन्तन, की आवश्यकता को जन्म देती है। इन्ही कुछ सामाजिक समस्याओं का समाधान इस पुस्तक में दिया गया है।
       महामहिम राष्ट्रपति महोदया श्रीमती प्रतिभा पाटिल के विचार से समाप्त करना चाहूँगा जो उन्होंने लखनऊ विश्वविधालय के दीक्षांत समारोह में बोलते हुए कहा था। आपका कहना था कि ''आतंकवाद और साम्प्रदायिक घृणा, विकास, सिथरता और शांतिपूर्ण समाज के शत्रु हैं। हमें भटके अपने युवाओं के मन से घृणा निकालनी होगी और उन्हें शांति, सौहार्द और साम्प्रदायिक सदभाव के रास्ते पर लाना होगा।
      इन्हीं सब मुददों को अद्वितीय साहित्यकार डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव एवं समाजशास्त्री डा.विजय कुमार वर्मा ने अति प्रासंगिकता के साथ  सूक्ष्म दृषिट से  इस पुस्तक का सम्पादन किया है। वैज्ञानिक एवं तर्क संगत विचाराधारा इस पुस्तक की सर्वोत्तम उपलबिध है जो समाज विज्ञान के सुविज्ञ पाठकों शोधार्थियों एवं विधाथियोर्ं के लिए अति उपयोगी सिद्ध होगी।
पुस्तक का नाम- भारत में सामाजिक सन्दर्भों के विविध परिदृश्य
संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव, डा.विजय कुमार वर्मा
पेज-10+303-313
ISSN.978.81.8455.391.8
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य-750.00
ओमेगा पबिलकेशन्स,43784,ठएळ4एजे.एम.डी.हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002

 

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