शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति : परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य

लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति : परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य

पुस्तक का नाम- लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति : परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य
संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-16+195¾211
ISSN.978.81.8455.398.7
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य-595.00
ओमेगा पबिलकेशन्स, 43784,एळ4एजे.एम.डी. हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002

        इस पुस्तक में लोक साहित्य के इतिहास की सूक्ष्म जानकारी दी गयी है-सम्पाद का मानना है कि लोक साहित्य मानव विकास की एक लम्बी कहानी है। अधिकतर भारतीय विद्वानों   की मान्यता है कि 'लोक'ऐसा जनसमूह है जो अभिजात्य संस्कार, सभ्यता और शिक्षा से रहित है जो अपने परंपरा प्रथित रीति रिवाजों और आदिम विश्वासों के प्रति आस्थाशील होने के कारण अशिक्षित एवं अल्पसभ्य कहा जाता है, 'लोक' का प्रतिनिधित्व करता है। तथा जो सुसंस्कृत लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और सहज जीवन जीने का अभ्यासी है। वह जनसमुदाय आदि प्रकृतियों से प्रभावित होता है तथा परंपरा के प्रवाह में ही इसका जीवन चलता है। 'लोक' नगर तथा ग्राम दोनों ही प्रकार की संस्कृतियों में विधमान है। साथ ही यह जनशकित का पर्याय भी है तथा समाज का गतिशील अंग भी। इसके कल्याण में समस्त मानव समाज का कल्याण निहित है।
      समय के शीर्षस्थ एवं प्रखर युवा आलोचक डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव की यह पुस्तक 16 अध्यायों एवं पाच खण्डों में निम्न शीर्षकों  के अन्तर्गत विभाजित है। लोक साहित्य एवं संस्कृति की अवधारणा एवं विकास प्रकि्रया,लोक साहित्य एवं संस्कृति केबदलते अभिप्राय,लोककला एवं लोक साहित्य के अन्त :सम्बन्धों के विविध विमर्श  ,लोक साहित्य एवं संस्कृति में लोकगीतों का महात्म, लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति : चिन्तन-चिन्ता के विविध परिदृश्यको इसमें प्रमुख वरीयता के साथ रखा गया है।

     किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज, कला साहित्य एवं सामाजिक आकांक्षाओं का सूक्ष्म अवलोकन लोक साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। श्रेष्ठ साहित्य का उदगम स्रोत भी  यही लोकाÒवियकित है और शिष्ट साहित्य के विकास की जडें भी लोकमानस की भावभूमि  से ही तत्त्व ग्रहण करती रहती हैं लेकिन शिष्ट साहित्य का झुकाव प्राय: अÒजित वर्ग की ओर अधिक रहता है। लोक साहित्य की प्रवृत्ति इससे थोड़ी अलग होती है। लोक साहित्य में बहुसंख्यक वर्ग का उल्लास और उच्छवास सनिनहित रहता है। इसके निर्माण में समग्र समाज का हाथ होता है अत: इसका झुकाव भी बहुसंख्यक वर्ग की ओर ही अधिक होता है। लोक साहित्य बहुधा अलिखित ही रहता है। इस साहित्य के रचयिता का नाम प्राय: अज्ञात रहता है। लोक का प्राणी जो कुछ कहता-सुनता है। उसे समूह की वाणी बनाकर और समूह में घुला-मिलाकर ही कहता है। लोक साहित्य में लोक संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब ही  होता है। साधारण जनता का हंसना, गाना, खेलना, रोना जिन शब्दों में अÒवियक्त हो सकता है वह सब कुछ लोक-साहित्य की परिधि में आ जाता है।

       आज जबकि र्इ. वर्ड में देश-काल, संस्कृति-समाज, परिवार का विखण्डन आधुनिकता का पर्याय बन गया है।  कभी परिवार का अर्थ कुटुम्ब हुआ करता था, परन्तु आज  वह पति-पत्नी और बच्चों तक सीमित हो गया है। ऐसी सिथति में अपराध, हत्या, आत्महत्या, प्रमाद, उन्माद जैसी मनोवैज्ञानिक जटिलताऐं मनुष्य को घेर रहीं हैं। परिवार टूट चुके हैं,यहाँ तक कि दाम्पत्य-सम्बन्ध तक नगरीकरण,आर्थिक उदारीकरण, कम्प्यूरीकरण, वैश्वीकरण की बलि चढ़ चुके हैं। संवादहीनता, घुटन, आक्रोश,अविश्वास आज की मूल प्रवृतितयां बन गयीं हैं। एक स्वस्थ पारिवारिक परिवेश का  वातावरण आज अविश्वसनीय हो गया है जो कल्पना एवं आख्यान का विषय बनकर रह गया है। पारिवारिक जीवन में भोग,छीना-झपटी,एक दूसरे को अवर कोटि का सिद्ध करने की होड़ लगी है। भार्इ-भार्इ का दुश्मन है, पति-पत्नी के बीच अधिकारों को लेकर टकराव है,माता-पिता अब कबाड़ का सामान हो गये हैं। ऐसे नवीन जीवन मूल्यों में भारतीय परम्पराओं को यदि जीवित रखना है,तो इसे मध्यकालीन एवं प्राचीनकालीन, भारतीय सांस्कृतिक -आख्यानों, कथाओं, गाथाओं के सांस्कृतिक संदेशों की संजीवनी देना अनिवार्य हो गया है। लोक-साहित्य एवं लोक संस्कृति इनका सर्वश्रेष्ठ स्रोत है। कुल मिलाकर लोक संंस्कृति ही भारतीय संस्कृति की जड़ है। जिसके रस से भारतीय संस्कृति का पौधा पल्लवित,पुषिपत और सुफलित है। अत: वर्तमान समय में लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति की परम्परा की प्रासंगिकता एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य को बनाए रखने तथा इसके संरक्षण एवं संवर्धन के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर प्रयास अवश्य होने चाहिए।
        लेखक ने विषय के साथ सम्पादकीय में बहुत हद तक न्याय करने का यत्न किया है। पुस्तक का विषय उपयोगी और पाठकों की जिज्ञासा को पर्याप्त मात्रा में शान्त करने वाला है। हमें उम्मीद है कि शिक्षित युवा ही नहीं बलिक लोक साहित्य से सम्बद्ध, विद्वतजनों व समाज के प्रबुद्ध नागरिकों को  लोक साहित्य जैसे परम्परागत विषय पर  इन  विद्वानों के बहुमूल्य एवं सारगर्भित विचार पसंद आएगें ।

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