रविवार, 24 फ़रवरी 2013

समसामयिक समस्याओं से हस्तक्षेप करता वर्तमान का साहित्य

समसामयिक समस्याओं से हस्तक्षेप करता वर्तमान का साहित्यडा0 बिनोद कुमार पाल,
इतिहास विभाग, पटना विश्वविद्यालय , पटना, बिहार।
       






 डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव की प्रस्तुत पुस्तक 28 विद्वानों के लेखकीय सहयोग से एवं पाच खण्डों में विभाजित है। जिनके उपशीर्षक परिवर्तित परिदृश्य में वर्तमान का हिन्दी साहित्य : चिन्तन चिन्ता के विविध पहलू, साहित्य में स्त्री विमर्ष : परिवर्तन के निकर्ष, सामाजिक परिवर्तन  की दिशा  तय करता वर्तमान का कथा साहित्य, परिवर्तित परिवेष में समकालीन कविता की आस्वादमूलक अर्थवत्ता : एक अनुषीलन, परिवर्तित परिदृष्य में संस्कृत साहित्य  में  चिन्तन के विविध सन्दर्भ। आदि महत्वपूर्ण हैं।
            वर्तमान समय की समस्या को उजागर करती यह पुस्तक अनेक मुददों के जवाब मांगती है ।आज का व्यकित महानगरीय परिवेश से व्यथित एवं संत्रस्त जीवन जी रहा है। और  वह अन्दर ही अन्दर अधिक पीडि़त होता जा रहा है। व्यकित में महात्वाकांक्षा का स्तर बढ़ता जा रहा है; जिससे उसके चेतना के स्रोत अवरूद्ध होते  जा रहे हैं । उसका जीवन जटिल, बिखरा एवं उजड़ा हुआ तथा कृत्रिम यंत्र की तरह निर्जीव पुर्जा सा बना अपने स्थान पर घूमता रहता है। ऐसी  ही आज के परिवारों की सिथति हो गयी है। जहाँ व्यकित अपने साँचे में ढला हुआ अपना जीवन ढोता तथा घसीटता जा रहा है। इसके साथ ही वह असंगतियों, कटुताओं और अंतर्विरोध जनित रिक्तता को लगातार झेल रहा है। जहाँ पुराने आदर्श खंडित होने लगे हैं, वहीं अनेक बाधाओं के साथ भी नये मूल्यों की तलाश भी जारी है। हालाकि इन परिसिथतियों के पीछे बहुत सटीक कारण तो नहीं देखने को मिलते हैं लेकिन औधोगीकरण, भूमण्डलीकरण तथा उदारीकरण की नीति ने आर्थिक विषमता को जन्म दिया है जिससे समाज की मान्यताओं, जीवन एवं सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन आने लगा है। परिवेशों का बिखराव, व्यकित का आत्मकेनिद्रत बनना, आपसी रिश्तों में अलगाव, घुटन आदि का पनपना शहरों में ही नहीं गाँव भी इसकी असर से अछूते नहीं रह पाए हैं। आज का व्यकित शहरी जीवन के विभिन्न दबावों से आक्रान्त होकर रह गया है। राजनैतिक दबाव, यांत्रिक जीवन की यंत्रणाओं के दबाव, स्वच्छंदता प्रिय सिथति के दबाव ने नगरीय व्यकितत्व को न केवल बाहर से अपितु भीतर से भी तोड़ डाला है, लगभग हर व्यकित का आज का जीवन अस्त व्यस्तताओं से भरा हुआ है।
              पुस्तक में साहित्य के समक्ष और भी अनेक चुनौतियाँ और उददेश्य हैं। वह यह है कि तथाकथित सभ्यता, संस्कृति के पैरोकार एवं पूंजी के मालिकों की ऐसी आजादी तथा लगातार हार रहे दलित, शोषित ,मजदूरों के आन्दोलनों से क्या आम लोगों के मन-मसितष्क में कोर्इ परिवर्तन या हालत खस्ता जैसी कोर्इ बात महसूस हो रही हैं। उनके प्रति संवेदनशीलता प्रकट करने के साथ ही आम लोगों को जिन्दगी की जरूरतों व हकों को दिलाने का कार्य आज के साहित्य का उददेश्य होना चाहिए।          
               इन्हीं व्यापक दृषिटकोणों को लेकर प्रस्तुत पुस्तक समकालीन परिवेश की ज्वलंत समस्याओं को लेकर केनिद्रत है। एक सम्पादक के रूप में डा. वीरेन्द्र सिंह यादव का यह सदैव प्रयास रहा है कि समाज में घटित होने वाली समस्याओं को पैनी नजर से अवलोकित किया जाये। प्रस्तुत  सम्पादित पुस्तक  देश के विभिन्न प्रान्तों के उच्च शिक्षा जगत से सम्बद्ध प्राध्यापकों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों तथा  साहित्यकारों के सार्थक चिन्तन, मनन एवं गम्भीर विचारों को रखा गया है। बदलते परिदृश्य में इसी को मददेनजर रखते हुये साहित्य की समकालीन समस्याओं से सम्बनिधत प्रमुख चर्चित विधाओं को विषयपरकता एवं वस्तुपरकता को दृषिटगत रखते हुए इस सम्पादित पुस्तक में  प्रकाश डाला गया है। साहित्य में समकालीन मुददों पर यचि रखने वाले सुविस पाठकों कों प्रस्तुत पुस्तक अवश्य पसंद आएगी।

पुस्तक -   समसामयिक समस्याओं से हस्तक्षेप करता वर्तमान का साहित्य
लेखक -   डा. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक -   ओमेगा पबिलकेशन्स 43734 बी., जी. 4, जे.
    एम. डी. हाउस, मुरारी लाल स्ट्रीट, अंसारी रोड, दरियागनज , नर्इ दिल्ली
मूल्य -    600.00
पेज -     14 + 208 - 222
ISSN -    978-81-8455-373-4

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें