शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

भ्रष्टाचार का वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की चुनौतियाँ

भ्रष्टाचार का वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की चुनौतियाँ
डा0 हितेन्द्र जे मौर्या
प्रवक्ता, इतिहास विभाग,
महाराजा सयाजी राव विश्वविधालय, बड़ोदरा (गुजरात)

पुस्तक का नाम- भ्रष्टाचार का वर्तमान परिदृश्य एवं भविष्य की चुनौतियाँ
संपादक-डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-20+332-352
ISSN .978.93.81630.02.0
संस्करण-प्रथम.2011,मूल्य-895.00
पैसिफिक पबिलकेशन्स-एन.187 शिवाजी चौक, सादतपुर एक्सटेंशन,दिल्ली-110094
             
          एक रचनाकार की संवेदनशीलता, समकालीन समस्याओं के संघर्ष की निस्तारण के बिना अपरिपक्व है। डा0वीरेन्द्र सिंह यादव मानवीय संवेदनाओं के कुशल चितेरे हैं। वर्तमान भारतीय समाज में आजकल भ्रष्टाचार अपने विकराल रूप में इस तरह फैल चुका है कि अब यह मात्र व्यवहार न रहकर एक स्वीकृत मनोवृतित बन चुका है। आर्थिक जीवन का क्षेत्र हो या शैक्षिक क्षेत्र हो, राजनीति का क्षेत्र हो या सामाजिक क्षेत्र हो, सांस्कृतिक क्षेत्र हो या धार्मिक क्षेत्र हो, पुलिस थाना हो या कचहरी सर्वत्र भ्रष्टाचार के कीटाणु जा पहुँचे हैं। छोटे से छोटे चपरासी से लेकर महाविधालयों व विश्वविधालयों के प्राचार्यों-आचार्यों  तक से लेकर शिक्षा जगत के उच्चतम अधिकारियों तक सिपाही से लेकर आर्इ0जी0तक विश्वविधालय से लेकर कुलपतियों तक,विधानसभा व विधान परिषद से लेकर लोकसभा व राज्यसभा तक, मनित्रयों से लेकर सर्वोच्च सत्ता के प्रतिष्ठानों तक में लोग इस अनैतिक कार्य में संलग्न देखे जा सकते हैं।
    इस पुस्तक में उच्च शिक्षा जगत के तैंतीस विद्वानों के विचारों को पाच उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है जो इस प्रकार है-भारत में भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि  एवं समाधान की दिशाएँ, समाज, राजनीति, प्रशासन एवं अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार के विविध सन्दर्भ, साहित्य में भ्रष्टाचार के प्रतिरोधी स्वर, संवैधानिक एवं व्यावहारिक दृषिट से भ्रष्टाचार निवारण के प्रावधान ,भ्रष्टाचार का वर्तमान परिदृश्य : चिन्तन-चिन्ता के विविध सरोकार प्रमुख हैं।
       डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव की इस पुस्तक में मान्यता है कि बढ़ती हुर्इ भौतिक सुविधाओं के उपभोग की बलवती आकांक्षा,धन का असमान वितरण या आर्थिक नीतियां, प्रोसिस आफ मारल लर्निंग का बन्द हो जाना, चरित्र का दोहरापन भ्रष्टाचार का मूल कारण है क्योंकि पहले हमें नैतिक शिक्षा के माध्यम से सिखाया जाता था कि चोरी करना पाप है। जीवों पर दया करो, असहायों की सहायता करो आदि-आदि। हमने शिक्षा के व्यवसायिक रास्ते से आर्इ0टी0 एवं मैनेजमेंट के क्षेत्र में भले ही एक कीर्ति स्तम्भ हासिल कर लिया है लेकिन नैतिक शिक्षा को भूलकर हम भ्रष्टाचारी, बेर्इमान और चोर हो गये हैं क्योंकि शिक्षा को अब केवल व्यवसायपरक दृषिटकोण से देखा जाने लगा है। शिक्षा की आर्थिक नीतियों ने हमें राष्ट्रभकित, चरित्रवान, र्इमानदारी सिखाना लगभग बन्द कर ये सिखाया है कि अधिक से अधिक धन कैसे इकटठा हो। आज अधिकतर मां-बाप अपने बच्चों को यही सिखाते हैं कि किसी भी तरीके से धन इकटठा करो ।
                         संपादक की चिन्ता है कि हमारे देश में सबसे अधिक कानून होने के बावजूद फिर भी भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है लेकिन डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव का मानना है कि भ्रष्टाचार रूपी दानव पर चहुमुखी अभियान चलाकर सरकार, जनता, कानून और आत्मानुशासन आदि सभी के बीच परस्पर समन्वय स्थापित करके विजय पार्इ जा सकती है। हमें आपसी तालमेल व समन्वय का परिचय देने की आवश्यकता है। यदि हमारा समाज भ्रष्टाचार मुक्त नहीं होता तो समाज के प्रत्येक सदस्य का कत्र्तव्य है कि वह राज्य में व्याप्त चोरबाजारी, भ्रष्टाचार, अन्याय, असमानता और मुनाफाखोरी का विरोध करे तभी मानवता का चतुमर्ुखी विकास होगा तथा विश्व वास्तविक प्रगति की ओर अग्रसर होगा। भ्रष्टाचार कम करने के लिए हमें कानूनी कार्यविधि (सक्रिय सूचना-अधिकार प्रणाली लागू होना, सूचना न देने पर अधिकारियों का दणिडत करना) और प्रशासन पर ध्यान केनिद्रत करने के लिए विशिष्ट स्तर, विशिष्ट व्यकितयों के विशेष सिथतियों में काम करने और व्यवहार करने के सम्बन्ध में परम्परा कानून और नियमों में परिवर्तन होना चाहिए। यदि कानूननियम अत्यन्त कठोर, जटिल और द्विअर्थी  हैं तो इससे भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन मिलता है ; कानून ऐसे न हों कि उनमें विवेक का अत्यधिक प्रयोग हो। भ्रष्टाचार को सफलता से रोकने के लिए समाज का सहयोग होना चाहिए। इसके अतिरिक्त लोकपालों की नियुकितयां उच्चासीन लोगों के विरूद्ध भ्रष्टाचार की जांच एक प्रभावी तरीका है लोकपाल के पास स्वतंत्र जांच तंत्र होना चाहिए। उनकी सिफरिशों को कानूनी दर्जा दिया जाना चाहिए और संसद पटल पर रखकर प्रचार माध्यमों द्वारा प्रकाशित किया जाना चाहिए।
          शोध आलेख प्रसंगानुसार विषय कर वैविध्यता एवं उपर्युक्तता  लिए हुए हैं। कुल मिलाकर पुस्तक अपने विजन को विषय वस्तु की दृषिट से बिल्कुल स्पष्ट करती है। साथ ही समाज में  फैले भ्रष्टाचार की समझ को दो टूक शब्दों में व्यक्त भी करती है। प्रशासकों ,प्राध्यापकों,शोध-छात्रों एवं जिज्ञासु पाठकों को यह पुस्तक उपयोगी होगी, ऐसी मेरी धारणा है।


 

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