रविवार, 24 फ़रवरी 2013

भारतीय हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा : एक मूल्यांकन

    भारतीय  हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा  : एक मूल्यांकन
   डा. सियाराम,

 वरिष्ठ प्रवक्ता

 हिन्दी विभाग, तिलक महाविद्यालय , औरैया
पुस्तक का नाम- भारतीय  हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा  : एक मूल्यांकन
संपादक- डा0 देवेन्द्र नाथ सिंह एवं डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-24+33-360
ISSN.978.93.81630.07.5
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य-900.00
पैसिफिक पबिलकेशन्स-एन.187 शिवाजी चौक, सादतपुर एक्सटेंशन,दिल्ली-110094
                 डा0 देवेन्द्र नाथ सिंह एवं डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव के कुशल संपादन में संपादित पुस्तक 23 अध्यायों एवं सात खण्डों में विभाजित की गयी है। जो इस प्रकार है। हिन्दी सिनेमा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य-दशा एवं दिशा, सिनेमा, संस्कृति  एवं समाज के बदलते अभिप्राय, विज्ञापन, टेलीविजन एवं  जनसंचार माध्यम का व्यवसायिक त्रिकोण, साहित्य एवं  सिनेमा के बदलते सरोकार,हालीवुड बनाम बालीबुड : सम्बन्धों के बदलते सन्दर्भ,निर्माता, निर्देशकों  से फिल्म समीक्षकों से बातचीत के अंश एवं फिल्म समीक्षाएं, हिन्दी सिनेमा की विकास यात्रा के विविध सन्दर्भ आदि।
        देश के चर्चित विद्वानों के विचारों को समेटे भारतीय सिनेमा की विकास यात्रा को अपने तरह से विवेचित करती इस पुस्तक में फिल्मों की तकनीक एवं वर्तमान समय तक अनेक दुर्लभ जानकारियाँ दी गयी हैं। सिनेमा सदैव ही सामाजिक बदलाव करने में अग्रणी रहा है। सिनेमा अभिव्यä कि सर्वाधिक प्रभावशाली एवं सशक्त माध्यम है, जो किसी घटना, विचार को मनोरम ढंग से प्रस्तुत करता है। व्यä किे अन्त:करण को संस्पर्शित कर उसे सकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर करता है। सिनेमा मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है अपितु वह अतीत का अभिलेख, वर्तमान का चितेरा और भविष्य की कल्पना है। सामाजिक परिवर्तन, लोक जागरण तथा बौद्धिक क्रांति की दिशा में भारतीय सिनेमा अविस्मरणीय है। यह ऐसा प्रभावकारी माध्यम है जिसने सभी उम्र के लोगों के मानस को झंकृत कर दिया है। राष्ट्रीय एकता, अछूतोद्धार, नारी जागरण, अन्याय,शोषण भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसे राष्ट्रीय हित के प्रश्नों पर जन-जन को जागरित करने वाला माध्यम सिनेमा ही है। फिल्मों के किसी एक दृश्य या संवाद से प्रभावित होकर दुर्दान्त अपराधी भी महात्मा बुद्ध बन जाता है। 'जागते रहो, 'नन्हा फरिश्ता जैसी फिल्मों ने पत्थर दिल डाकुओं को भी अच्छा इंसान बना दिया। 'डा0 कोटनीस की अमर कहानी, 'पड़ोस', 'संत ज्ञानेश्वर', 'पुकार', 'आह', 'मदर इंडिया', 'जिस देश में गंगा बहती है', 'इंसानियत', 'आदमी', 'दर्द का रिश्ता', 'गाइड' आदि फिल्मों ने दर्शको के समक्ष अनेक ज्वलंत प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत किया जिसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया।
       पुस्तक में यह दर्शाने की कोशिश की गर्इ है कि आज भारत एक ऐसा देश बन चुका है जहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्मों का निर्माण होता है। हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के दर्शकों की दुनिया में सबसे ज्यादा तादाद है। इस समय देश भर में सिनेमा की दुनिया में करीब लाखों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिला हुआ है। औसतन  एक हजार फिल्मों का निर्माण प्रतिवर्ष किया जा रहा है। फिल्में देखने वालों की संख्या रोजाना करोडों़ आंकी गर्इ है। भारतीय सिनेमा बाजार को करीब ढार्इ अरब अमरीकी डालर का आंका गया है। बंबइया फिल्में जिसे बालीवुड भी कहा जाता है, भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा हिस्सा है। इसके जानकारों का कहना है कि बालीवुड में बनने वाली पाँच से दस प्रतिशत फिल्में ही ऐसी होती हैं जोकि वास्तव में आर्थिक दृषिट से सफल और पैसा कमाने वाली साबित होती हैं जबकि बाकी फिल्में या तो डिब्बों में बंद रह जाती हैं या फिर पर्दे पर बहुत कम समय के लिए टिक पाती हैं तथा पर्याप्त दर्शकों को आकर्षित करने में असफल होती हैं। ऐसी ही सिथति क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों की है। फिल्म को लोकप्रिय बनाने और उन्हें अधिक से अधिक दर्शकों तक पहुंचाने के लिए मसाला फिल्में बनार्इ जाती हैं जिनमें आइटम सांग से लेकर गाली गलौज तक अपनाया जा रहा है। हिंसा, अपराध और चालू संगीत के जरिये उन्हें अगली सीटों को भरने लायक बनाने का प्रयास किया जाता है। इसके बावजूद हर साल दर्शकों को आकर्षित करके मुनाफा कमाने वाली फिल्मों की संख्या गिनी-चुनी ही रहती है और अधिकतर फिल्में उस रास्ते पर चलती दिखार्इ देती हैं जिन्हें डिजास्टर और फ्लाप जैसी संज्ञा दी जाती है। इस कारोबार के जानकारों का कहना है कि फिल्मी दुनिया देखने में तो ग्लैमरस और लाभ का सौदा दिखार्इ देता है लेकिन वास्तविकता इससे बहुत दूर है।
               ज्ञानवर्धन, उपयोगी एवं जनसामान्य की समझ लायक बनाने के लिए इस सम्पादित पुस्तक में अनेक विद्वतजनों के विचारों को लिया गया है। इस आशा विश्वास एवं नेह के साथ कि प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक सिनेमा जैसे समसामयिक विषय पर आम-जन के मध्य जिज्ञासा एवं उत्सुकता पैदा कर उप्हें सोचने को विवश करेगी।


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