शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

भारतीय लोकतन्त्र : मुददे, विकल्प और नीतियाँ

          
   
भारतीय लोकतन्त्र : मुददे, विकल्प और नीतियाँ
डा0 कमलेश कुमार  सिंह
विभागाध्यक्ष- राजनीति विज्ञान विभाग
के. ए.(पी.जी.) कालेज, कासगंज
पुस्तक - भारतीय लोकतन्त्र : मुददे, विकल्प और नीतियाँ
सम्पादक - डा. अजय सिंह एवं डा. वीरेन्द्र सिंह यादव
प्रकाशक - पैसिफिक पबिलकेशन, 42311 अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली
मूल्य -     750.00
 पृष्ठ   :   14+363-377
ISSN :    81.7487.650.2
     संपादक डा. अजय सिंह एवं डा. वीरेन्द्र सिंह यादव की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत पुस्तक में 21विद्वान लेखकों को समिमलित कर इसे पाच खण्डों में बाटा गया है। लोकतंत्र की अवधारणा एवं विकास प्रकि्रया ,लोकतन्त्र एवं राजनीति के बदलते सरोकार,भारतीय लोकतंत्र एवं व्यवस्था चुनाव : एक विश्लेषण,लोकतंत्र के विकास में न्यायपालिका की  भूमिका,लोकतंत्र  : चिन्तन-चिन्ता के विविध सन्दर्भ आदि के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
            पुस्तक की मान्यता है कि शासन का प्रजातांत्रिक स्वरूप समानता, स्वतंत्रता व स्वनिर्णय को सम्भव बनाता है । लोकतंत्र राजनीतिक सत्ता वितरण का वह स्वरूप है जो सामाजिक व आर्थिक भेदभाव से ऊपर उठकर समाज में प्रत्येक सदस्य को शासन का सहभागी बनाता है। लोकतंत्र सबके लिये न केवल अपना शासक चुनना सम्भव बनाता है, वरन सभी के लिये शासक बनने के अवसर भी प्रदान करता है। भारत के संविधानकारों में लोकतंत्र की इस उत्कृष्ट विशेषता को पहचानते हुये लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को देश में लागू किया।किसी भी देशकाल की बात करें इतना तो स्पष्ट है कि लोकतंत्र की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही बुद्धिपूर्वक विचार-विमर्श पर निर्भर है। लोकतंत्रवाद एक आशावादी सिद्धान्त माना जाता है। यह सदाचार पर भरोसा करता है और इसके विकास के लिये उचित वातावरणपर्यावरण प्रस्तुत करना चाहता है। समता और स्वतंत्रता लोकतंत्र के मूल आधार हैं।जटिलताओं, झंडों, बैनरों, नारों और विविध पहचानों के पीछे लोकतंत्र के इस व्यापक शासन-तंत्र को चलाती है।इस प्रभु वर्ग में शामिल पूंजीपतियों, सामंतों, द्वित जातियों, पिछड़ी, अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों की शिक्षा, रहन-सहन, इच्छाएं और सपने एक जैसे ही हैं। यह भारतीय मध्य वर्ग अपने को दुनियाँ के सबसे बड़े तीसरे बाजार के रूप में पेश करता है। यही भूमण्डलीकरण, बाजारीकरण और उपभोक्तावाद का आधार है। इन तत्वों के प्रवेश की वजह से भारतीय लोकतंत्र में आध्यातिमक व नैतिक मूल्यों का áस हुआ है जिसके फलस्वरूप राजनीति में विवेकहीनता, स्वार्थ लोलुपता, भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और माफियाकरण की प्रवृतितयां मुखर हुर्इ हैं। अनेक समस्यओं से रूबरू कराती यह पुस्तक अनेक मुददों का पर्दाफाश करती है। अब भारत में धर्म एवं जाति के नाम पर सरकारों का निर्माण हो रहा है। देश की बेरोजगारी, गरीबी, प्रदूषण, सामाजिक असमानता, दहेज प्रथा, उत्तम स्वास्थ्य, बाल विवाह, बाल श्रम, निरक्षरता की समापित, भारतीय खेलों का गिरता स्तर आदि मुíे भारतीय राजनीतिक दलों की कार्य प्रणाली में महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखते हैं। भारतीय लोकतंत्र में आम आदमी की साझेदारी कहीं न कहीं बाधित हो रही है क्योंकि वह भयमुक्त नहीं है। भयमुक्त समाज में सामान्य आदमी किसी भय, लालच, आतंक, प्रलोभन से दूर रहकर उसकी वैचारिक स्वतंत्रता और उसके अभिव्यकित की स्वतंत्रता उसे स्वत: ही राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ देती है। जो गरीब है, जो पिछड़ा है। वह प्रभावशाली लोगों की विरासत से आज भी मुक्त नहीं हो पाया है। इसलिये उसकी अभिव्यकित राजनीति की मुख्यधारा को नहीं स्वीकार कर सकी, जिससे लोकतांत्रिक संस्कृति की जड़े कमजोर होती जा रही हैं।
                आज जब कि हम अवना 64 वां गणतंत्र दिवस पूरा कर चुके है तब भी प्राय: यह प्रश्न उठाया जाता है कि यदि हमारी आधरभूत परिकल्पना में त्रुटियां नहीं थीं तो फिर भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान संकट का कारण क्या है ? कुछ लोग इसे नेतृत्व का संकट बताते हैं तो कुछ लोग चरित्र का संकट। किंतु वास्तव में यह संकट लोकतांत्रिक संरस्थाओं और मूल्यों के महत्व को धीरे-धीरे नकार देने के कारण ही पैदा हुआ है। इस प्रक्रिया को 'क्राइसिस आफ इन्स्टीटयूशन की संज्ञा दी जा सकती है। नि:संदेह इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही भारत में संस्थाओं पर आधारित संसदीय लोकतंत्र का माडल असितत्व में आया, परन्तु संपूर्ण ढांचे में केन्द्र सरकार का वर्चस्व प्रारम्भ से ही अत्यधिक रहा। एक ओर तो पार्टी प्रणाली और संघीय प्रणाली जैसी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रारंभ हुर्इ। दूसरी ओर शकित, सत्ता और संसाधनों पर केन्द्र की पकड़ बरकरार रही। यही कारण था कि नौकरशाही और राजनीतिज्ञों के बीच प्रारंभ से ही एक तनाव की सिथति बनी रही। ऐसा ही तनाव केन्द्र और राज्य के मध्य भी समय-समय पर दिखार्इ देता रहा। किंतु इन सबके बावजूद जब तक केन्द्र और राज्य स्तर पर कांग्रेस के बड़े नेता मौजूद रहे, पं0 नेहरू को सत्ता और संसाधनों का उचित बंटवारा करना पड़ता था, किन्तु जैसे-जैसे ये नेता गुजरते गये, संस्थायें और लोकतांत्रिक तौर-तरीके भी समाप्त होते गये। दरअसल, संविधान में लिख देने मात्र से ही लोकतांत्रिक संस्थाओं को जीवित नहीं रखा जा सकता,अपितु केन्द्र और संस्थाओं के मध्य सत्ता व साधनों को मजबूत बनाया जा सकता था जिसके अभाव में लोकतांत्रिक संस्थाओं का दम तोड़ना नितान्त स्वाभाविक प्रक्रिया थी। इन्ही सब सवालों एवं संघर्षों सं गुजरती यह पुस्तक अनेक ज्वलंत प्रश्नों को हल करने की कोशिश भी करती है।
      हमें उम्मीद है कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले शिक्षित युवा ही नहीं बलिक शिक्षा जगत से सम्बद्ध ,विद्वतजनों व समाज के प्रबुद्ध नागरिकों को  लोकतंत्र जैसे ज्वलंत विषय पर  इन  विद्वानों के बहुमूल्य एवं सारगर्भित विचार पसंद आएगें ।

 

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