शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

समय से मुठभेड़ करतीं दलित आत्मकथाएँ

समय से मुठभेड़ करतीं दलित आत्मकथाएँ
             
       डा0 सुरेश एफ. कानडेएप्लाट नं. 48, साईं बंगला, प्रोफेसर कालोनी, विजडम हाईस्कूल के पीछे, रामेश्वर, नगर, गंगापुर रोड, नासिक-422013 (महाराष्ट्र)
            भाव, विचार और शिल्प किसी लेखक की स्थायी निधियाँ हुआ करती हैं, यही पह सूक्ष्म तत्व है जिसके सहारे अनुभूति की प्रवषता और प्रामाणिकता का पुट देकर वह रचना को सुन्दर और आकर्षक बनाता है। इन्ही कुछ तत्पों को सहेजे डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव की यह पुस्तक उच्च शिक्षा जगत के बीस विद्वानों के विचारों को समेटे हुए चार उपशीर्षकों  के अन्तर्गत 20 अध्यायों में विभाजित की गयी है। दलित हिन्दी आत्मकथाएँ: दग्ध अनुभव के ज्वलंत दस्तावेज ,हिन्दी दलित महिला  आत्मकथाओं में नग्न यथार्थ, मराठी दलित आत्मकथाओं में शोषण एवं संघर्ष  का चरम आख्यान, असमानता का वैश्विक परिदृश्य जैसे निम्न शीर्षकों में विभाजित है।
        इस पुस्तक की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें दलित आत्मकथाओं में जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं-जातिवाद, रोटी कपड़ा और मकान का व्यापक उल्लेख हुआ है। यही नहीं इन आत्मकथाओं में अपने समाज का सम्पूर्ण दैन्य, दारिद्रय, अज्ञान, संस्कृति-विकृति, धर्म, मनोरंजन आदि बातों को भी रेखांकित किया गया है। इसका यह कदापि अर्थ नहीं कि ये आत्मकथाएँ समाजशास्त्र की पुस्तकें मात्र हैं बल्कि कलात्मक स्तर तक ये पहुँची हुई हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दलित आत्मकथाएं दलित चेतना के लिए उत्प्रेरक का कार्य कर रही हैं और थोपी गई हीनता-ग्रन्थि को आत्मकथाएं तोड़ रही हैं और आत्मसम्मान की जिंदगी जीने का मार्ग भी प्रशस्त कर रही हैं। इसके साथ ही दलित मानसिकता को जकड़न से बाहर निकालने का एक  सकारात्मक प्रयास  कर रहीं हैं ये आत्मकथाएं।  इसके साथ ही आने वाली पीढ़ी के लिए  ये दलित आत्मकथाएं एक विस्तृत फलक तैयार करने का काम कर रही हैं। इस पुस्तक के माध्यम से इसमें कोई दो राय नहीं की हाशिए के समाज की वकालत करने में डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव पूर्ण सफल हैं।
                        पुस्तक में अधिकतर विद्वानों की मान्यता है कि  आने वाली पीढ़ी के लिए दलित आत्मकथाएँ एक विस्तृत फलक एवं विजन तैयार करने का काम कर रही हैं। एक दलित को आत्मकथाएं सच्ची क्यों लगती हैं? क्या सिर्फ इसलिए कि वह दलित है या उसने हिन्दू व्यवस्था के अत्याचारों को झेला और महसूस किया है? यही कारण है कि दलित चिंतन गैर दलितों की संवेदनशीलता और लेखन पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है। हालांकि गैर दलित चिंतकों, लेखकों, आलोचकों के बीच से एक ऐसा वर्ग उभर कर आ रहा है, जो दलित चिंतन और आक्रोश को विश्लेषित कर रहा है तथा दलित साहित्य को स्वीकारते हुए बड़ी संजीदगी से उसकी मीमांसा कर रहा है, जो कि स्वागत योग्य है।
                     पुस्तक की मान्यता है कि दलित चिंतकों की दृष्टि में अतीत एक स्याह पृष्ठ है, जहां सिर्फ घृणा है, द्वेष है, उदात्त मानवीय सम्बन्धों की गरिमा का विखंडन है। हर एक प्रसंग, घटना, दैहिक वासना बनकर रह गई है। दलित साहित्य अतीत के इस खोखलेपन से परिचित है। अतीत के आदर्श उसे झूठे, बेईमान और छद्म दिखाई पड़ते हैं। जिसे वह उतारकर फेंक देना चाहता है। दलित  चिन्तकों एवं लेखकों को दया से घृणा है। उन्हें दया और सहानुभूति नहीं  बल्कि अधिकार चाहिए । और यह सब आत्मसम्मान और अस्मिता की पदचाप मराठी, गुजराती और अन्य भाषा-साहित्यों के साथ-साथ हिन्दी में नकार, वेदना और आक्रोश के रूप में दलित साहित्य में अभिव्यक्त हो रही है। मोहक शब्दावलियों, आकर्षक अवधारणाओं -दार्शनिक उत्पत्तियों की असलियत क्रमशः उघाड़ी जाने लगी है। खुद की बनाई हुई भीति से रहस्य की चादर दरकने तथा चटखने लगी है। गर्व से महिमामंडित करने वाले साहित्य के ठेकेदारों की साहित्यिकता और सौन्दर्यशास्त्र उन्हें ही मुंह चिढ़ाने को आतुर हैं। यही नहीं सदियों से शोषित, अस्पृश्य दलित वर्ग में अपनी स्थिति के प्रति आक्रोश है; उससे मुक्ति की छटपटाहट है, अवरोधक तत्वों के विरूद्ध या इसी स्थिति में जीने के लिए उन्हें विवश करने वालों के प्रति सशक्त विद्रोह का भाव है और इस विद्रोह को साकार रूप देने हेतु उनमें पनपी है-एकता। वह एकता जो किसी आन्दोलन की सही शक्ति होती है, सही माध्यम होती है और उनमें तैयारी है एक लम्बी, दूरगामी लड़ाई की।
                  प्रस्तुत सम्पादित पुस्तक देश भर के विद्वान प्राध्यापकों, बुद्धिजीवियों, साहित्य मनीषिया एव दलित चिन्तकों ने वर्तमान की ज्वलंत विधा दलित आत्मकथाजैसे संवेदनशील एवं अति महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार रखे है । इस पुस्तक की सबसे  बड़ी विशेषता यह है कि भारत ही नही बल्कि अश्वेत अमेरिकी राष्ट्रपति की पिता से मिले सपने आत्मकथा को भी इसमें सम्मिलित किया गया है। जो अभी तक  का अपने आप में डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव का अपने आप में यह पहला महत्वपूर्ण प्रयास है। फिर भी हमारा ऐसा विचार है कि प्रस्तुत पुस्तक न केवल विषय विशेषज्ञों, शोधार्थियों, प्राध्यापकों एवं सामाजिक चिंतकों, बल्कि आम-जन के लिए भी उपयोगी एवं प्रेरणास्पद सिद्ध होगी।
पुस्तक का नाम- समय से मुठभेड़ करतीं दलित आत्मकथाएँ

संपादक- डा0 वीरेन्द्रसिंह यादव
ISSN.978.93.81630.06.8
संस्करण-प्रथम.2012,मूल्य-895.00
पैसिफिक पब्लिकेशन्स-एन.187 शिवाजी चैक, सादतपुर एक्सटेंशन,दिल्ली-110094


 

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