शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

उत्तर आधुनिकता : विचार और मूल्यांकन

      उत्तर आधुनिकता  : विचार और मूल्यांकन
डा0 सियाराम
असि प्रोफेसर -हिंदी,तिलक महाविद्यालय , औरैया,उ.प्र.
 साहित्य के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले डा.वीरेन्द्रसिंह यादव ने शायद ही कोर्इ क्षेत्र छोड़ा हो ,जिस पर अपना सृजन न किया हो,इधर साहित्य की चर्चित नूतन विधा-उत्तरआधुनिकता पर आर्इ यह संपादित पुस्तक चर्चा के केन्द्र में है।   उत्तर आधुनिकता : विचार और मूल्यांकन नामक पुस्तक में इसे पाच उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है-जैसे उत्तर आधुनिकता:पृष्ठभूमि,प्रतिफलन और अध्ययन की सीमाएं,हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता कुछ अक्स, कुछ अन्देशे, उत्तर आधुनिकता कथ्य और शिल्प के नये आयाम,आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता:कुछ विचार,कुछ प्रश्न,उत्तर आधुनिकता के परिवर्तित भावबोध: मूल्यांकन और तकनीक के अहम सवाल।बीस अध्यायों में विभाजित पुस्तक में  उत्तर आधुनिकता के लगभग सभी पहलुओं पर विचार तो हुआ ही है इसके साथ ही इसके दुष्परिणामों को भी अपने सम्पादकीय के माध्यम से डां.वीरेन्द्र ने इसका विवेचन एवं विश्लेषण किया है-अर्थात उत्तर आधुनिकतावाद.................. वैसे उत्तर आधुनिकता की अवधारणा और इससे सम्बनिधत सिद्धांत अस्पष्ट हैं क्योंकि इसके समर्थक किसी सर्वसम्मति अर्थ के लिए राजी नहीं हैं। उत्तर आधुनिकता का बहुत बड़ा सरोकार, कला, संस्कृति और पुरातत्व से है। इसकी घनिष्ठता साहित्य कला से भी है। हालाकि हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता  का प्रवेश बहुत पहले हो चुका है। और अब हमारे अनुभव उत्तर आधुनिक बन रहे हैं।
       पुस्तक की मान्यता है कि  हिन्दी में उत्तर आधुनिकतावाद के आगमन की तुलना असितत्ववाद के आगमन से की जा सकती है। सातवें दशक में जिस तरह बहुत से लोग स्वयं को नया और दूसरों से आगे बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए असितत्ववादी शब्दावली में लिखने बोलने लगे थे। उसी तरह आज बहुत से लोग उत्तर आधुनिकतावादी शब्दावली में लिखने बोलने लगे हैं। आज बात-बात पर उसी तरह देरिदा, फूको, ल्योतार आदि के नाम लिये जाते हैं, जिस तरह असितत्ववाद के आगमन के समय सात्र्र, काम, काफ्फा आदि के नाम लिये जाते थे। असितत्ववाद और उत्तर आधुनिकतावाद में एक रोचक समानता यह है कि असितत्ववाद और उत्तर आधुनिकतावाद दोनों का जन्म यूरोप में हुआ। लेकिन असितत्ववाद की तरह उत्तर आधुनिकतावाद भी अमेरिका के ही रास्ते से भारत में आया।
ल्योतार ने 'उत्तर-आधुनिक को 'आधुनिक का विरोधी बताते हुए कहा कि वह प्रत्येक विज्ञान आधुनिक है जो किसी महावृतांत के सन्दर्भ से अपनी वैधता प्राप्त करता है। जबकि 'उत्तर-आधुनिक वह है जो महावृतांतों के प्रति शंकालु होता है।
पशिचम के ऐसे भाषा चिंतक, जो स्वयं को 'उत्तर माक्र्सवादी कहकर माक्र्स से अपना नाता जोड़ने की कोशिश करते हैं, दरअसल वे माक्र्स के नही नीत्शे के अनुयायी हैं। हिन्दी के कुछ उत्तर आधुनिकतावादी भी स्वयं को गर्व से 'उत्तर माक्र्सवादी कहते हैं। लेकिन माक्र्स से वे अपना नाता सिर्फ इसलिए जोड़ते हैं कि माक्र्सवाद विरोधी प्रचार करते समय वे कुछ विश्वसनीय नजर आयें। उत्तर आधुनिकतावादी बड़े पहुँचे हुए खिलाड़ी हैं। वे स्वयं किसी नियम कायदे में विश्वास नहीं रखते, लेकिन दूसरों के लिए नियम कायदे खूब बनाते हैं। जाहिर है कि उत्तर आधुनिकतावाद भाषा, साहित्य, कला आदि से सम्बनिधत कोर्इ फैशन या आन्दोलन नही, बलिक एक प्रकार की राजनीति है। इसे रचना और आलोचना की एक नयी पद्धति मात्र समझना भूल है। यह आज के पूँजीवाद की विचारधारा है और इसे इसी रूप में समझना आवश्यक है।
अपने शोध पत्रों के माध्यम से विद्वानों ने माना है कि उत्तर-आधुनिकतावाद कोर्इ तर्कसंगत विचारधारा नही है। लेकिन स्वयं उत्तर आधुनिकतावादी लोग जो इसे अपनाना अनिवार्य बतलाते हैं और इसकी असंगतियों को जानते हैं।
हिन्दी में इसके प्रमुख प्रचारक सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक 'उत्तर आधुनिकता और उत्तर संरचनावाद (1994) में उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं कि - उत्तर आधुनिकता, आधुनिकता का विस्तार भी है और अंतिम बिन्दु भी है। आधुनिकता के दौर से काफी अलग वह एक उत्तर साम्राज्यवादी सिथति है। वह एक भूमण्डलीय अवस्था है जिसमें हम सब शामिल हैं। वह 'ज्ञान की अवस्था के बदल जाने का लक्षण है। वह हमारे सांस्कृतिक व्यवसाय के बदल जाने का नाम है। उत्तर आधुनिकता बहुत से भिन्न लोगों के लिए बहुत से भिन्न अर्थ रखती है। उत्तर आधुनिकता यह सब है और इसके अलावा भी बहुत कुछ है। लेकिन यह शायद बाकी हर चीज से ज्यादा एक मनोदशा भी है।
पुस्तक में अनेक प्रश्न एवं भ्रम अभी भी उत्तर आधुनिकता को लेकर बने हुए हैं जैसे - लेकिन क्या उत्तर आधुनिकता सचमुच हर चीज का खंडन करती है ? हर चीज को खारिज करती है ? क्या वह पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण, दमन, उत्पीड़न, अन्याय, अनुचित दबाव का विरोध करती है ? नहीं, कभी नहीं ! उत्तर आधुनिकतावाद आज के पूँजीवाद की विचारधारा है, जो ज्ञान की जगह अज्ञान का, तर्क की जगह तर्कहीनता का और विवेक की जगह विवेकहीनता का प्रचार-प्रसार करती है। इसका उददेश्य लोगों को समाजवाद और साम्यवाद की दिशा में जाने से रोकना तो है ही, पूँजीवादी जनवाद को समाप्त करना भी है। उत्तर आधुनिकतावाद का सबसे प्रमुख तत्व है। अभिजनवाद (एलीटिज्म), जिसके द्वारा विशिष्ट और सामान्य लोगों में भेद किया जाता है और सामान्य लोगों को-अर्थात गरीब, शोषित, उत्पीडि़त जनता और उसके पक्षधरों को नीची नजर से देखा जाता है। रिचर्ड रोर्टी, जो उत्तर आधुनिकतावाद के एक प्रमुख चिंतक माने जाते हैं, अपनी पुस्तक 'कांटिजेंसी आयरनी एण्ड सालिडैरिटी (1989) में बौद्धिक और सामान्य लोगों में यह भेद बतलाते हैं कि बौद्धिक लोग 'आयरनिस्ट विडंबनावादी होते हैं, जबकि सामान्य लोग जीवन को गंभीरता से लेते हैं। आजकल हिन्दी के लेखकों को यह अभिजनवाद बहुत प्रभावित कर रहा है। गंभीर लेखन उत्तर आधुनिकतावादी लोगों की नजर में पुराना, पिछड़ा हुआ और उपेक्षणीय लेखन है। श्रेष्ठ लेखन वह है, जो विशिष्ट पाठकों के लिए किया जाये, मगर हल्का-फुल्का हो, जिसमें व्यंग, विडंबना, भेदस और आत्मोपहास का मिश्रण हो।
स्पष्ट है कि उत्तर आधुनिकतावाद केवल साहित्य, कला और संस्कृति तक सीमित नहीं, बलिक इसका सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। इसका सम्बन्ध वर्तमान से ही नहीं, बलिक निकट तथा दूर के भविष्य से भी है। लेकिन उत्तर आधुनिकतावाद के प्रति यह रवैया अपनाना भी उचित नही कि यह कोर्इ फैशन है और इसकी परवाह नही करनी चाहिए। इसे अच्छी तरह समझे बिना ही खारिज कर देने की प्रवृत्ति तो गलत है ही, इसको 'साम्राज्यवादी षड़यंत्र समझकर खारिज करने की प्रवृत्ति और भी ज्यादा गलत है। यह मानना ठीक नही कि उत्तर आधुनिकतावादी तमाम लेखक, विचारक षड़यंत्रकारी या साम्राज्यवाद का एजेन्ट हैं। विचारधारायें किसी के आदेश पर या किसी षड़यंत्र के तहत पैदा नही होती। विचारधारायें भौतिक जगत की वास्तविक परिसिथतियों में किसी वर्गीय आवश्यकता से उत्पन्न होती हैं।
उत्तर आधुनिकता कोर्इ फैशन नहीं, बलिक आज के पूँजीवाद की एक वैचारिक तथा सांस्कृतिक अभिव्यकित है, जिसको समझे बिना आज के पूँजीवाद को समझना संभव नहीं। उत्तर आधुनिकता का जन्म किसी भी देश में हुआ हो, भारत के प्रभुत्वशाली अभिजन वर्ग ने इसे अपना लिया है। उत्तर आधुनिकता में कुछ ऐसा भी है, जो उपयोगी भी हो सकता है। उत्तर आधुनिकता सकारात्मक रूप में नहीं तो एक नकारात्मक उत्प्रेरक के रूप में तो उपयोगी हो ही सकती है। उत्तर आधुनिकता ने सबसे बड़ा लाभदायक काम यह किया है कि एक नये ढंग से सचेत और सक्रिय होने की चुनौती पैदा करने के साथ-साथ नयी बहसों और नये आन्दोलनों की संभावना भी पैदा कर दी है। जिन्हें साहित्य की समझ को विकसित करना है वह भी उत्तर आधुनिकता जैसे महत्वपूर्ण बिन्दु को पकड़ना हो तो समीक्षक डा0 वीरेन्द्र द्वारा सम्पादित इस कृति को अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि बेस बुक(आधार पुस्तक) के लिए इससे अच्छी किताब शायद ही बाजार में कोर्इ उपलब्ध हो।
                 कुल मिलाकर पुस्तक अपने विजन को विषय वस्तु की दृषिट से बिल्कुल स्पष्ट करती है। साथ ही उत्तर आधुनिकता की समझ को दो टूक शब्दों में व्यक्त भी करती है। प्राध्यापकों,शोध-छात्रों एवं जिज्ञासु पाठकों को यह पुस्तक उपयोगी होगी, ऐसी मेरी धारणा है।

 पुस्तक का नाम-उत्तर आधुनिकता : विचार और मूल्यांकन
 संपादक-डा.वीरेन्द्रसिंह यादव
पेज-20+248-26
ISSN.978.81.8455.337.6
संस्करण-प्रथम.2011,मूल्य-650.00
ओमेगा पबिलकेशन्स,43784ठएळ4एजे.एम.डी. हाउस,मुरारी लाल स्ट्रीट,अंसारी रोड, दरियागंज, नर्इ दिल्ली-110002


 

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